Hindi Sahitya Sangam https://hindisahityasangam.com/ Thu, 20 Jun 2024 09:07:04 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.1 https://hindisahityasangam.com/wp-content/uploads/2023/02/cropped-HSS-Favicon-32x32.png Hindi Sahitya Sangam https://hindisahityasangam.com/ 32 32 शिवमूर्ति | प्रताप नारायण मिश्र | हिन्दी निबंध https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%ae%e0%a5%82%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%bf-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%aa-%e0%a4%a8%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%a3/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%25b6%25e0%25a4%25bf%25e0%25a4%25b5%25e0%25a4%25ae%25e0%25a5%2582%25e0%25a4%25b0%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25a4%25e0%25a4%25bf-%25e0%25a4%25aa%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25b0%25e0%25a4%25a4%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25aa-%25e0%25a4%25a8%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25b0%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25af%25e0%25a4%25a3 https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%ae%e0%a5%82%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%bf-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%aa-%e0%a4%a8%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%a3/#respond Mon, 05 Jun 2023 19:16:40 +0000 https://hindisahityasangam.com/?p=708 शिवमूर्ति प्रताप नारायण मिश्र   हमारे ग्रामदेव भगवान भूतनाथ सब प्रकार से अकथ्य अप्रतर्क्य एवं अचिन्त्य हैं। तौ भी उनके भक्त जन अपनी रुचि के अनुसार उनका रूप, गुण, स्वभाव कल्पित कर लेते हैं। उनकी सभी बातें सत्य हैं, अतः उनके विषय में जो कुछ कहा जाय सब सत्य है। मनुष्य की भांति वे नाड़ी आदि […]

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शिवमूर्ति
प्रताप नारायण मिश्र

 

हमारे ग्रामदेव भगवान भूतनाथ सब प्रकार से अकथ्य अप्रतर्क्य एवं अचिन्त्य हैं। तौ भी उनके भक्त जन अपनी रुचि के अनुसार उनका रूप, गुण, स्वभाव कल्पित कर लेते हैं। उनकी सभी बातें सत्य हैं, अतः उनके विषय में जो कुछ कहा जाय सब सत्य है। मनुष्य की भांति वे नाड़ी आदि बंधन से बद्ध नहीं हैं। इससे हम उनको निराकार कह सकते हैं और प्रेम दृष्टि से अपने हृदय मन्दिर में उनका दर्शन करके साकार भी कह सकते हैं। यथा-तथ्य वर्णन उनका कोई नहीं कर सकता। तौ भी जितना जो कुछ अभी तक कहा गया है और आगे कहा जावेगा सब शास्त्रार्थ के आगे निरी बकबक है और विश्वास के आगे मनः शांति कारक सत्य है!!! महात्मा कबीर ने इस विषय में कहा है वह निहायत सच है कि जैसे कई अंधों के आगे हाथीं आबै और कोई उसका नास बतादे, तो सब उसे टटोलेंगे। यह तो संभव ही नहीं है कि मनुष्य के बालक की भांति उसे गोद में ले के सब कोई अवयव का ठीक-ठीक बोध कर ले। केवल एक अँग टटोल सकते हैं और दाँत टटोलने वाला हाथी को खूंटी के समान, कान छूने वाला सूप के समान, पाँव स्पर्श करने वाला खंभे के समान कहेगा, यद्यपि हाथी न खूंटे के समान है न खंभे के। पर कहने वालों की बात झूठी भी नहीं है। उसने भली भांति निश्चय किया है और वास्तव में हाथी का एक-एक अंग वैसा ही है जैसा वे कहते हैं। ठीक यही हाल ईश्वर के विषय में हमारी बुद्धि का है। हम पूरा-पूरा वर्णन वा पूरा साक्षात् करलें तो वह अनंत कैसे और यदि निरा अनन्त मान के अपने मन और वचना को उनकी ओर से बिल्कुल फेर लें तौ हम आस्तिक कैसे! सिद्धान्त यह कि हमारी बुद्धि जहां तक है वहां तक उनकी स्तुति-प्रार्थना, ध्यान, उपासना कर सकते हैं और इसी से हम शांति लाभ करेंगे!

उनके साथ जिस प्रकार का जितना संबंध हम रख सकें उतना ही हमारा मन बुद्धि शरीर संसार परमारथ के लिये मंगल है। जो लोग केवल जगत के दिखाने को वा सामाजिक नियम निभाने को इस विषय में कुछ करते हैं उनसे तो हमारी यही विनय है कि व्यर्थ समय न बितावैं। जितनी देर पूजा-पाठ करते हैं, जितनी देर माला सरकाते हैं उतनी देर कमाने-खाने, पढ़ने-गुनने में ध्यान दें तो भला है! और जो केवल शास्त्रार्थी आस्तिक हैं वे भी व्यर्थ ईश्वर को अपना पिता बना के निज माता को कलंक लगाते हैं। माता कहके विचारे जनक को दोषी ठहराते हैं, साकार कल्पना करके व्यापकता का और निराकार कह के अस्तित्व का लोप करते हैं। हमारा यह लेख केवल उनके विनोदार्थ है जो अपनी विचार शक्ति को काम में लाते हैं और ईश्वर के साथ जीवित संबंध रख के हृदय में आनन्द पाते हैं, तथा आप लाभकारक बातों को समझ के दूसरों को समझाते हैं! प्रिय पाठक उसकी सभी बातें अनन्त हैं। तौ मूर्तियां भी अनन्त प्रकार से बन सकती हैं और एक-एक स्वरूप में अनन्त उपदेश प्राप्त हो सकते हैं। पर हमारी बुद्धि अनन्त नहीं है, इससे कुछ एक प्रकार की मूर्तियों का कुछ-कुछ अर्थ लिखते हैं।

मूर्ति बहुधा पाषाण की होती है जिसका प्रयोजन यह है कि उनसे हमारा दृढ़ संबंध है। दृढ़ वस्तुओं की उपमा पाषाण से दी जाती है। हमारे विश्वास की नींव पत्थर पर है। हमारा धर्म पत्थर का है। ऐसा नहीं कि सहज में और का और हो जाय। इसमें बड़ा सुभीता यह भी है कि एक बार बनवा के रख ली, कई पीढ़ी को छुट्टी हुईं। चाहे जैसे असावधान पूजक आवैं कोई हानि नहीं हो सकती है। धातु की मूर्ति से यह अर्थ है कि हमारा स्वामी दृवण शील अर्थात्‌ दयामय है। जहां हमारे हृदय में प्रेमाग्नि धधकी वहीं हमारा प्रभु हम पर पिघल उठा। यदि हम सच्चे तदीय हैं तो वह हमारी दशा के अनुसार बरतेंगे। यह नहीं कि उन्हें अपना नियम पालने से काम। हम चाहें मरें चाहें जियें। रत्नमयी मूर्ति से यह भाव है कि हमारा ईश्वरीय संबंध अमूल्य है। जैसे पन्ना पुख- राज की मूर्ति बिना एक गृहस्थी भर का धन लगाये नहीं हाथ आती। यह बड़े ही अमीर का साध्य है। वैसे ही प्रेममय परमात्मा भी हमको तभी मिलेंगे जब हम अपने ज्ञान का अभिमान खो दें। यह भी बड़े ही मनुष्य का काम है! मृत्तिका की मूर्ति का यह अर्थ है कि उनकी सेवा हम सब ठौर कर सकते हैं। जैसे मिट्टी और जल का अभाव कहीं नहीं है, वैसे ही ईश्वर का वियोग कहीं नहीं है। धन और गुण का ईश्वर प्राप्ति में कुछ काम नहीं। वह निरधन के धन हैं। ‘हुनर मन्दों से पूछे जाते हैं बाबे हुनर पहिले’। या यों समझ लो कि सब पदार्थ आदि और अन्त में ईश्वर से उत्पन्न हैं, ईश्वर ही में लय होते हैं इस बात से दृष्टान्त मट्टी से खूब घटता है। गोबर की मूर्ति यह सिखाती है कि ईश्वर आत्मिक रोगों का नाशक है हृदय मन्दिर की कुवासना रूपी दुरगंध को हरता है। पारे की मूर्ति में यह भाव है कि प्रेमदेव हमारे पुष्टि कारक ‘सुगन्धं पुष्टि वर्द्धनं’ यह मूर्ति बनाने वा बनवाने की सामर्थ्य न हो तो पृथ्वी और जल आदि अष्ट मूर्ति बनी बनाई पूजा के लिये विद्यमान हैं।

वास्तविक प्रेम-मूर्ति मनोमंदिर में बिराजमान है। पर यह दृश्य मूर्तियां भी निरर्थक नहीं हैं इनके कल्पनाकारी मूर्ति निन्‍दकों से अधिक पढ़े लिखे थे। मूर्तियों के रंग भी यद्यपि अनेक होते हैं पर मुख्य रंग तीन हैं। श्वेत जिसका अर्थ यह है कि परमात्मा शुद्ध है, स्वच्छ है; उसकी किसी बात में किसी का कुछ मेल नहीं है। पर सभी उसके ऐसे आश्रित हो सकते हैं जैसे उजले रंग पर सब रंग। वह त्रिगुणातीत तो हुई, पर त्रिगुणालय भी उसके बिना कोई नहीं। यदि हम सतोगुणमय भी कहें तो बेअदबी नहीं करते! दूसरा लाल रंग है जो रजोगुण का वर्ण है। ऐसा कौन कह सकता है कि यह संसार भर का ऐश्वर्य किसी और का है। और लीजिये कविता के आचार्यों ने अनुराग का रंग लाल कहा है। फिर अनुराग देव का रंग और क्या होगा? तीसरा रंग काला है। उसका भाव सब सोच सकते हैं कि सबसे पक्का यही रंग है, इस पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता। ऐसे ही प्रेमदेव सब से अधिक पक्के हैं उन पर और का रंग क्‍या चढ़ेगा? इसके सिवा वाह्य जगत के प्रकाशक नैन हैं। उनकी पुतली काली होती है, भीतर का प्रकाशक ज्ञान है। उसकी प्रकाशिनी विद्या है जिसकी समस्त पुस्तकें काली मसी से लिखी जाती है। फिर कहिए जिससे अंतर, बाहर दोनों प्रकाशित होते हैं, जो प्रेमियों को आंख की ज्योति से भी प्रियतर है, जो अनन्त विद्यामय है उसका फिर और क्या रंग हम मानें? हमारे रसिक पाठक जानते हैं किसी सुंदर व्यक्ति के आंखों में काजल और गोरे-गोरे गाल पर तिल कैसा भला लगता है कि कवियों भरे की पूरी शक्ति, रसिकों भर का स्वर्थ एक बार उस शोभा पर निछावर हो जाता है। यहां तक कि जिनके असली तिल नहीं होता उन्हें सुन्दरता बढ़ाने को कृत्रिम तिल बनाना पड़ता है। फिर कहिये तो, सर्व शोभामय परम सुन्दर का कौन रंग कल्पना करोगे? समस्त शरीर में सर्वोपरि शिर है उस पर केश कैसे होते हैं? फिर सर्वोत्कृष्ट देवाधि देव का और क्या रंग है? यदि कोई बड़ा मैदान हो लाखों कोस का और रात को उसका अन्त लिया चाहो तो सौ दो सौ दीपक जलाओगे। पर क्या उनसे उसका छोर देख लोगे? केवल जहाँ दीप ज्योति है वहीं तक देख सकोगे फिर आगे अन्धकार ही तो है? ऐसे ही हमारी हमारे अगणित ऋषियों की सब की बुद्धि जिसका ठीक हाल नहीं प्रकाश सकती उसे अप्रकाशवत्‌ न मानें तो क्या मानें? रामचंद्र कृष्णचंद्रादि को यदि अंगरेजी जमाने वाले ईश्वर न मानें तौ भी यह मानना पड़ेगा कि हमारी अपेक्षा ईश्वर से और उनसे अधिक संबंध था। फिर हम क्यों न कहें कि यदि ईश्वर का अरितत्व है तो इसी रंग-ढंग का है।

अब आकारों पर ध्यान दीजिये। अधिकतर शिवमूर्ति लिंगाकार होती है जिसमें हाथ, पांव, मुख कुछ नहीं होते। सब मूर्ति पूजक कह देंगे कि ‘हमको साक्षात्‌ ईश्वर नहीं मानते न उसकी यथा तथ्य प्रति कृति मानें। केवल ईश्वर को सेवा करने के लिये एक संकेत चिन्ह मानते हैं।’ यह बात आदि में शैवों ही के घर से निकली है, क्योंकि लिंग शब्द का अर्थ ही चिन्ह है।

सच भी यही है जो वस्तु वाह्य नेत्रों से नहीं देखी जाती उसकी ठीक-ठीक मूर्ति ही क्या? आनन्द की कैसी मूर्ति? दुःख की कैसी मूर्ति? रागिनी की कैसी मूर्ति? केवल चित्तवृत्ति। केवल उसके गुणों का कुछ द्योतन!! बस! ठीक शिव मूर्ति यही है। सृष्टि कर्तृत्व, अचिन्त्यत्व अप्रतिमत्व कई एक बातें लिंगाकार मूर्ति से ज्ञात होती हैं। ईश्वर यावत्‌ संसार का उत्पादक है। ईश्वर कैसा है, यह बात पूर्ण रूप से कोई नहीं वर्णन कर सकता। अर्थात्‌ उसकी सभी बातें गोल हैं। बस जब सभी बातें गोल हैं तो चिन्ह भी हमने गोलमोल कल्पना कर लिया यदि ‘नतस्य प्रतिमास्ति’ का ठीक अर्थ यही है कि ईश्वर प्रतिमा नहीं है। ता इसकी ठीक सिद्धि ज्योतिर्लिंग ही से होगी, क्योंकि जिसमें हाथ, पाँव, मुख, नेत्रादि कुछ भी नहीं है उसे प्रतिमा कौन कह सकता है? पर यदि कोई मोटी बुद्धि वाला कहे कि जो कोई अबयब ही नहीं तो फिर यही क्यों नहीं कहते कि कुछ नहीं है। हम उत्तर दे सकते हैं कि आंखें हों तो धर्म से कह सकते हो कि कुछ नहीं है? तात्पर्य यह कि कुछ है, और कुछ नहीं है दोनों बातें ईश्वर के विषय में न कही जा सकें, न नहीं कहीं जा सके, और हाँ कहना भी ठीक है। एवं नहीं कहना भी ठीक है। इसी भांति शिवलिंग भी समझ लीजिये। वह निरवयव है, पर मूर्ति है। वास्तव में यह विषय ऐसा है कि मन, बुद्धि और वाणी से जितना सोचा समझा और कहा जाय उतना ही बढ़ता जायगा। और हम जन्म भर बका करेंगे, पर आपको यही जान पड़ेगा कि अभी श्री गणेशायनम: हुई है!!!

इसी से महात्मा लोग कह गये हैं कि ईश्वर को वाद में न ढूंढो पर विश्वास में। इस लिये हम भी योग्य समझते हैं कि सावयव (हाथ पांच इत्यादि वाली) मूर्तियों के वर्णन की और झुकें जानना चाहिये कि जो जैसा होता है उसकी कल्पना भी वैसी ही होती है। यह संसार का जातीय धर्म है कि जो वस्तु हमारे आस-पास हैं उन्हीं पर हमारी बुद्धि दौड़ती है। फ़ारस, अरब और इंग्लिश देश के कवि जब संसार की अनित्यता वर्णन करेंगे तो कब्रिस्तान का नक़शा खींचेंगें, क्योंकि उनके यहाँ स्मशान होते ही नहीं हैं। वे यह न कहें तो क्या कहें कि बड़े-बड़े बादशाह खाक में दबे हुए सोते हैं। यदि क़बर का तख़ता उठा कर देखा जाय तो शायद दो चार हड्डियां निकलेंगी जिन पर यह नहीं लिखा कि यह सिकंदर की हड्डी है यह दारा की इत्यादि।

हमारे यहां उक्त विषय में स्मशान का वर्णन होगा, क्योंकि अन्य धर्मियों के आने से पहिले यहां कबरों की चाल ही न थी। यूरोप में खूबसूरती के बयान में अलकाबली का रंग काला कभी न कहेंगे। यहां ताम्र वर्ण सौंन्दय का अंग न समझा जायगा। ऐसे ही सब बातों में समझ लीजिये तब समझ में आ जायेगा कि ईश्वर के विषय में बुद्धि दौड़ाने वाले सब कहीं सब काल में मनुष्य ही हैं। अतएव‌ उसके स्वरूप की कल्पना मनुष्य ही के स्वरूप की सी सब ठौर की गई है। इंजील और कुरान में भी कहीं-कहीं खुदा का दाहिना हाथ बायां हाथ इत्यादि वर्णित हैं, बरंच यह खुला हुआ लिखा है कि उसने आदम को अपने स्वरूप में बनाया। चाहे जैसी उलट फेर की बातें मौलवी साहब और पादरी साहब कहें, पर इसका यह भाव कहीं न जायगा कि ईश्वर यदि सावयव है तो उसका भी रूप हमारे ही रूप का सा होगा। हो चाहे जैसा पर हम यदि ईश्वर को अपना आत्मीय मानेंगे तो अवश्य ऐसा ही मान सकते हैं जैसों से प्रत्यक्ष में हमारा उच्च संबंध है। हमारे माता, पिता, भाई-बन्धु, राजा, गुरू जिनको हम प्रतिष्ठा का आधार एवं आधेय कहते हैं उन सब के हाथ, पाँव, नाक, मुँह हमारे हस्तपदादि से निकले हुए हैं, तो हमारे प्रेम और प्रतिष्ठा का सर्वोत्कृष्ट सम्बन्धी कैसा होगा बस इसी मत पर सावयव सब मूर्ति मनुष्य की सी मूर्ति बनाई जाती है। विष्णुदेव की सुन्दर सौम्य मूर्तियां प्रेमोत्पादनार्थ हैं क्योंकि खूबसूरती पर चित्त अधिक आकर्षित होता है। भैरवादि की मूर्तियां भयानक हैं जिसका यह भाव है कि हमारा प्रभु हमारे शत्रुओं के लिये महा भयजनक है। अथच हम उसकी मंगलमयी सृष्टि में हलचल डालेंगे तो वह कभी उपेक्षा न करेगा। उसका स्वभाव क्रोधी है। पर शिवमूर्ति में कई एक विशेषता हैं। उनके द्वारा हम यह उपकार यथामति ग्रहण कर सकते हैं।

शिर पर गंगा का चिन्ह होने से यह भाव है कि गंगा हमारे देश की सांसारिक और परमार्थिक सर्वस्व हैं और भगवान सदा शिव विश्वव्यापी हैं। अंत: विश्वव्यापी की मूर्ति-कल्पना में जगत वा सर्वोपरि पदार्थ ही शिर स्थानी कहा जा सकता है। दूसरा अर्थ यह, है कि पुराणों में गंगा की विष्णु के चरण से उत्पत्ति मानी गई है और शिवजी को परम वैष्णव कहा है। उस परमवैष्णववता की पुष्टि इससे उत्तम और क्या हो सकती है कि उनके चरण निर्गत जल को शिर पर धारण करें। ऐसे ही विष्णु भगवान को परम शैव लिखा है कि भगवान विष्णु नित्य सहस्र कमल पुष्पों से सदा शिव की पूजा करते थे। एक दिन एक कमल घट गया तो उन्होंने यह विचार के कि हमारा नाम कमल-नयन है अपना नेत्र कमल शिवजी के चरण कमल को अर्पण कर दिया। सच है अधिक शैवता और क्या हो सकती है! हमारे शास्त्रार्थी भाई ऐसे वर्णन पर अनेक कुतर्क कर सकते हैं। पर उनका उत्तर हम कभी पुराण प्रतिति-पादन से देंगे। इस अवसर पर हम इतना ही कहेंगे कि ऐसे ऐसे सन्देह बिना कविता पढ़े कभी नहीं दूर होने के। हाँ, इतना हम कह सकते हैं कि भगवान विष्णु की शैवता और भगवान शिव की वैष्णवता का आलंकारिक वर्णन है। वास्तव में विष्णु अर्थात्‌ व्यापक और शिव अर्थात्‌ कल्याणमय यह दोनों एक ही प्रेम स्वरूप के नाम हैं। पर उसका वर्णन पूर्णतया असम्भव। अंत: कुछ कुछ गुण एकत्र करके दो स्वरूप कल्पना कर लिये गये हैं जिसमें कवियों को वचन शक्ति के लिये आधार मिले।

हमारा मुख्य विषय शिवमूर्ति है और वह विशेषत: शैवों के धर्म का आधार है। अंत: इन अप्रतर्क्य विषयों को दिग्दर्शन मात्र कथन करके अपने शैव भाइयों से पूछते हैं कि आप भगवान गंगाधर के पूजक होके वैष्णवों से किस बरते पर द्वेष रख सकते हैं? यदि धर्म से अधिक मतवालेपन पर श्रद्धा हो तो अपने प्रेमाधार भगवान भोलानाथ को परम वैष्णव एवं गंगाधार कहना छोड़ दीजिये! नहीं तो सच्चा शैव वही हो सकता है जो वैष्णव मात्र को आपको देवता समझे। इसी भांति यह भी समझना चाहिये कि गंगा जी परम शक्ति हैं इससे शैवों को शाक्तों के साथ भी विरोध अयोग्य है। यद्यपि हमारी समझ में तो आस्तिक मात्र को किसी से द्वेष बुद्धि रखना पाप है, क्योंकि सब हमारे जगदीश ही की प्रजा हैं, सब हमारे खुदा ही के बन्दे हैं। इस नाते सभी हमारे आत्मीय बन्धु हैं पर शैव समाज का वैष्णव और शाक्त लोगों से विशेष संबंध ठहरा। अंत: इन्हें तो परस्पर महा मैत्री से रहना चाहिये। शिवमूर्ति में अकेली गंगा कितना हित कर सकती हैं इसे जितने बुद्धिमान जितना विचारें उतना ही अधिक उपदेश प्राप्त कर सकते हैं। इस लिये हम इस विषय को अपने पाठकों के विचार पर छोड़ आगे बढ़ते हैं।

बहुत मूर्तियों के पांच मुख होते हैं जिससे हमारी समझ में यह आता है कि यावत संसार और परमार्थ का तत्व तो चार वेदों में आपको मिल जायगा, पर यह न समझियेगा कि उनका दर्शन भी वेद विद्या ही से प्राप्त है। जो कुछ चार वेद सिखलाते हैं उससे भी उनका रूप उनका गुण अधिक है। वेद उनकी वाणी है। केवल चार पुस्तकों पर ही उस वाणी की इति नहीं है। एक मुख और है जिसकी प्रेममयी वाणी केवल प्रेमियों के सुनते में आती है। केवल विद्या-भिमानी अधिकाधिक चार वेद द्वारा बड़ी हद चार फल (धर्मार्थ, काम, मोक्ष) पा जाएंगे, पर उनके पंचम मुख सम्बन्धी सुख औरों के लिये है।

शिवमूर्ति क्या है और कैसी है यह बात तो बड़े-बड़े ऋषि मुनि भी नहीं कह सकते हम क्या हैं। पर जहां तक साधारणतया बहुत सी मूर्तियां देखने में आई हैं उनका कुछ वर्णन हमने यथामति किया, यद्यपि कोई बड़े बुद्धिमान इस विषय में लिखते तो बहुत सी उत्तमोत्तम बातें और भी लिखते, पर इतने लिखने से भी हमें निश्चय है किसी न किसी भाई का कुछ भला हो ही रहेगा। मरने के पीछे कैलाशवास तो विश्वास की बात है। हमने न कैलाश देखा है, न किसी देखने वाले से कभी वार्तालाप अथवा पत्र व्यवहार किया है। हां यदि होता होगा तो प्रत्येक मूर्ति के पूजक को ही रहेगा। पर हमारी इस अक्षरमयी मूर्ति के सच्चे सेवकों को संसार ही में कैलाश का मुख ग्राप्त होगा इसमें सन्देह नहीं है, क्योंकि जहां शिव हैं वहां कैलाश है। तौ जब हमारे हृदय में शिव होंगे तो हमारा हृदय-मन्दिर क्‍यों न कैलाश होगा? हे विश्वनाथ! कभी हमारे हृदय मन्दिर को कैलाश बनाओगे? कभी वह दिन दिखाओगे कि भारतवासी मात्र केवल तुम्हारे हो जायं और यह पवित्र भूमि फिर कैलाश हो जाय? जिस प्रकार अन्य धातु पाषाणादि निर्मित मूर्तियों का रामनाथ, वैद्यनाथ, आनन्देश्वर, खेरेश्वर आदि नाम होता है वैसे इस अक्षरमयी शिवमूर्ति के अगणित नाम हैं। हृदयेश्वर, मंगलेश्वर, भारतेश्वर इत्यादि पर मुख्य नाम प्रेमेश्वर है। कोई महाशय प्रेम का ईश्वर न समझें। मुख्य अर्थ है कि प्रेममय ईश्वर। इनका दर्शन भी प्रेम-चक्षु के बिना दुर्लभ है। जब अपनी अकर्मण्यता का और उनके एक-एक उपकार का सच्चा ध्यान जमेगा तब अवश्य हृदय उमड़ेगा, और नेत्रों से अश्रुधारा बह चलेगी। उस धारा का नाम प्रेमगंगा है। उसी के जल से स्नान कराने का माहात्म्य है। हृदय-कमल उनके चरणों पर चढ़ाने से अक्षय पुण्य है। यह तो इस मूर्ति की पूजा है जो प्रेम के बिना नहीं हो सकती। पर यह भी स्मरण रखिये कि यदि आप के हृदय में प्रेम है तो संसार भर के मूर्तिमान और अमूर्तिमान सब पदार्थ शिव मूर्ति हैं, अर्थात्‌ कल्याण का रूप है। नहीं तो सोने और हीरे की मूर्ति तुच्छ है। यदि उससे स्त्री का गहना बनवाते तो उसकी शोभा होती, तुम्हें सुख होता, भैयाचारे में नाम होता, बिपति काल में निर्बाह होता। पर मूर्ति से कोई बात सिद्ध नहीं हो सकती। पाषाण, धातु, मृत्तिका का कहना ही क्‍या है? स्वयं तुच्छ पदार्थ है। केवल प्रेम ही के नाते ईशर हैं, नहीं तो घर की चक्की से भी गये बीते, पानी पीने के भी काम के नहीं, यही नहीं प्रेम के बिना ध्यान ही में क्या ईश्वर दिखाई देगा? जब चाहो आंखें मूंद के अन्धे की नक़ल कर देखो। अंधकार के सिवाय कुछ न सूझेगा। वेद पढ़ने में हाथ मुंह दोनों दुखेंगे। अधिक श्रम करोगे, दिमाक में गर्मी चढ़ जायगी। खैर इन बातों के बढ़ाने से क्‍या है? जहां तक सहृदयता से विचार कीजियेगा वहां तक यही सिद्ध होगा कि प्रेम के बिना वेद झगड़े की जड़, धर्म बे शिर पैर के काम, स्वर्ग शेखचिल्ली का महल, मुक्ति प्रेत की बहिन है। ईश्वर का तो पता ही लगना कठिन है। ब्रह्म शब्द ही नपुंसक अर्थात है। और हृदय मन्दिर में प्रेम का प्रकाश है तौ संसार शिवमय है क्योंकि प्रेम ही वास्तविक शिवमूर्ति अर्थात्‌ कल्याण का रुप है।

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भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है | भारतेंदु हरिश्चंद्र | हिन्दी निबंध https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4%e0%a4%b5%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a5%8b%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%a8%e0%a4%a4%e0%a4%bf-%e0%a4%95%e0%a5%88%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%b9%e0%a5%8b-%e0%a4%b8/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%25ad%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25b0%25e0%25a4%25a4%25e0%25a4%25b5%25e0%25a4%25b0%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25b7%25e0%25a5%258b%25e0%25a4%25a8%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25a8%25e0%25a4%25a4%25e0%25a4%25bf-%25e0%25a4%2595%25e0%25a5%2588%25e0%25a4%25b8%25e0%25a5%2587-%25e0%25a4%25b9%25e0%25a5%258b-%25e0%25a4%25b8 https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4%e0%a4%b5%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a5%8b%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%a8%e0%a4%a4%e0%a4%bf-%e0%a4%95%e0%a5%88%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%b9%e0%a5%8b-%e0%a4%b8/#respond Mon, 05 Jun 2023 19:14:03 +0000 https://hindisahityasangam.com/?p=705 भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है भारतेंदु हरिश्चंद्र   आज बड़े आनंद का दिन है कि छोटे से नगर बलिया में हम इतने मनुष्यों को एक बड़े उत्साह से एक स्थान पर देखते हैं। इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाए वही बहुत है। बनारस ऐसे-ऐसे बड़े नगरों में जब कुछ नहीं होता तो […]

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भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है
भारतेंदु हरिश्चंद्र

 

आज बड़े आनंद का दिन है कि छोटे से नगर बलिया में हम इतने मनुष्यों को एक बड़े उत्साह से एक स्थान पर देखते हैं। इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाए वही बहुत है। बनारस ऐसे-ऐसे बड़े नगरों में जब कुछ नहीं होता तो हम यह न कहेंगे कि बलिया में जो कुछ हमने देखा वह बहुत ही प्रशंसा के योग्य है। इस उत्साह का मूल कारण जो हमने खोजा तो प्रगट हो गया कि इस देश के भाग्य से आजकल यहाँ सारा समाज ही एकत्र है। राबर्ट साहब बहादुर ऐसे कलेक्टर जहाँ हो वहाँ क्यों न ऐसा समाज हो। जिस देश और काल में ईश्वर ने अकबर को उत्पन्न किया था उसी में अबुलफजल, बीरबल, टोडरमल को भी उत्पन्न किया। यहाँ राबर्ट साहब अकबर हैं जो मुंशी चतुर्भुज सहाय, मुंशी बिहारीलाल साहब आदि अबुलफजल और टोडरमल हैं। हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी है।

यद्यपि फर्स्ट क्लास, सैकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी है पर बिना इंजिन सब नहीं चल सकती वैसी ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह दीजिए ‘का चुप साधि रहा बलवाना’ फिर देखिए हनुमानजी को अपना बल कैसा याद आता है। सो बल कौन याद दिलावे। हिंदुस्तानी राजे-महाराजे, नवाब, रईस या हाकिम। राजे-महाराजों को अपनी पूजा, भोजन, झूठी गप से छुट्टी नहीं। हाकिमों को कुछ तो सरकारी काम घेरे रहता है कुछ बाल-घुड़दौड़, थियेटर में समय लगा। कुछ समय बचा भी तो उनको क्या गरह है कि हम गरीब, गंदे, काले आदमियों से मिल कर अपना अनमोल समय खोवें। बस यही मसल रही-

तुम्हें गैरों से कब फुरसत, हम अपने गम से कब खाली।

चलो बस हो चुका मिलना न हम खाली न तुम खाली॥

तीन मेंढ़क एक के ऊपर एक बैठे थे। ऊपर वाले ने कहा, ‘जौक शौक’, बीच वाल बोला, ‘गम सम’, सब के नीचे वाला पुकारा, ‘गए हम’। सो हिंदुस्तान की प्रजा की दशा यही है ‘गए हम’। पहले भी जब आर्य लोग हिंदुस्तान में आकर बसे थे राजा और ब्राह्मणों के जिम्मे यह काम था कि देश में नाना प्रकार की विद्या और नीति फैलावें और अब भी ये लोग चाहें तो हिंदुस्तान प्रतिदिन क्या प्रतिछिन बढ़े। पर इन्हीं लोगों को निकम्मेपन ने घेर रखा है। ‘बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः समर दूषिताः’ हम नहीं समझते कि इनको लाज भी क्यों नहीं आती कि उस समय में जबकि इनके पुरुखों के पास कोई भी सामान नहीं था तब उन लोगों ने जंगल में पत्ते और मिट्टी की कुटियों में बैठ कर बाँस की नालियों से जो तारा, ग्रह आदि बेध कर के उनकी गति लिखी है वह ऐसी ठीक है कि सोलह लाख रुपए की लागत से विलायत में जो दूरबीन बनी है उनसे उन ग्रहों को वेध करने में भी ठीक वही गति आती है और अब आज इस काल में हम लोगों की अंग्रेजी विद्या के और जनता की उन्नति से लाखों पुस्तकें और हजारों यंत्र तैयार हैं जब हम लोग निरी चुंगी की कतवार फेंकने की गाड़ी बन रहे हैं। यह समय ऐसा है कि उन्नति की मानो घुड़दौड़ हो रही है। अमेरिकन, ‍‍अंग्रेज, फरांसीस आदि तुरकी-ताजी सब सरपट्ट दौड़े जाते हैं। सब के जी में यही है कि पाला हमी पहले छू लें। उस समय हिंदू का टियावाड़ी खाली खड़े-खड़े टाप से मिट्टी खोदते हैं। इनको औरों को जाने दीजिए जापानी टट्टुओं को हाँफते हुए दौड़ते देख कर के भी लाज नहीं आती। यह समय ऐसा है कि जो पीछे रह जाएगा फिर कोटि उपाय किए भी आगे न बढ़ सकेगा। लूट की इस बरसात में भी जिस के सिर पर कम्बख्ती का छाता और आँखों में मूर्खता की पट्टी बँधी रहे उन पर ईश्वर का कोप ही कहना चाहिए।

मुझको मेरे मित्रों ने कहा था कि तुम इस विषय पर आज कुछ कहो कि हिंदुस्तान की कैसे उन्नति हो सकती है। भला इस विषय पर मैं और क्या कहूँ भागवत में एक श्लोक है – “नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारं मयाsनुकूलेन तपः स्वतेरितं पुमान भवाब्धि न तरेत स आत्महा।” भगवान कहते हैं कि पहले तो मनुष्य जन्म ही दुर्लभ है सो मिला और उस पर गुरु की कृपा और उस पर मेरी अनुकूलता। इतना सामान पाकर भी मनुष्य इस संसार सागर के पार न जाए उसको आत्महत्यारा कहना चाहिए, वही दशा इस समय हिंदुस्तान की है। अंग्रेजों के राज्य में सब प्रकार का सामान पाकर, अवसर पा कर भी हम लोग जो इस समय उन्नति न करें तो हमारे केवल अभाग्य और परमेश्वर का कोप ही है। सास और अनुमोदन से एकांत रात में सूने रंग महल में जाकर भी बहुत दिनों से प्राण से प्यारे परदेसी पति से मिल कर छाती ठंडी करने की इच्छा भी उसका लाज से मुँह भी न देखे और बोले भी न तो उसका अभाग्य ही है। वह तो कल परदेस चला जाएगा। वैसे ही अंग्रेजों के राज्य में भी जो हम मेंढ़क, काठ के उल्लू, पिंजड़े के गंगाराम ही रहें तो फिर हमारी कमबख्त कमबख्ती फिर कमबख्ती ही है। बहुत लोग यह कहेंगे कि हमको पेट के धंधे के मारे छुट्टी ही नहीं रहती, बाबा, हम क्या उन्नति करें। तुम्हारा पेट भरा है तुम को दून की सूझती है। उसने एक हाथ से अपना पेट भरा दूसरे हाथ से उन्नति के काँटों को साफ किया। क्या इंग्लैंड में किसान, खेत वाले, गाड़ीवान, मजदूर, कोचवान आदि नहीं हैं? किसी देश में भी सभी पेट भरे हुए नहीं होते, किंतु वे लोग जहाँ खेत जोतते-बाते हैं वहीं उसके साथ यह भी सोचते हैं कि ऐसी कौन नई कल व मसाला बनावें जिससे इस खेत में आगे से दून अनाज उपजे। विलायत में गाड़ी के कोचवान भी अखबार पढ़ते हैं। जब मालिक उतरकर किसी दोस्त के यहाँ गया उसी समय कोचवान ने गद्दी के नीचे से अखबार निकाला। यहाँ उतनी देर कोचवान हुक्का पिएगा या गप्प करेगा। सो गप्प भी निकम्मी। वहाँ के लोग गप्प ही में देश के प्रबंध छाँटते हैं। सिद्धांत यह कि वहाँ के लोगों का यह सिद्धांत है कि एक छिन भी व्यर्थ न जाए। उसके बदले यहाँ के लोगों को जितना निकम्मापन हो उतना ही बड़ा अमीर समझा जाता है। आलस्य यहाँ इतनी बढ़ गई कि मलूकदास ने दोहा ही बना डाला-

अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।

दास मलूका कहि गए सबके दाता राम॥

चारों ओर आँख उठाकर देखिए तो बिना काम करने वालों की ही चारों ओर बढ़ती है। रोजगार कहीं कुछ भी नहीं है अमीरों, मुसाहिबी, दल्लालों या अमीरों के नौजवान लड़कों को खराब करना या किसी की जमा मार लेना इनके सिवा बतलाइए और कौन रोजगार है जिससे कुछ रुपया मिले। चारों ओर दरिद्रता की आग लगी हुई है किसी ने बहुत ठीक कहा है कि दरिद्र कुटुंबी इस तरह अपनी इज्जत को बचाता फिरता है जैसे लाजवंती बहू फटें कपड़ों में अपने अंग को छिपाए जाती है। वही दशा हिंदुस्तान की है। मुर्दम-शुमारी का रिपोर्ट देखने से स्पष्ट होता है कि मनुष्य दिन-दिन यहाँ बढ़ते जाते हैं और रुपया दिन-दिन कमती होता जाता है। सो अब बिना ऐसा उपाय किए काम नहीं चलेगा कि रुपया भी बढ़े और वह रुपया बिना बुद्धि के न बढ़ेगा। भाइयों, राजा-महाराजों का मुँह मत देखो। मत यह आशा रखो कि पंडित जी कथा में ऐसा उपाय बतलाएँगे कि देश का रुपया और बुद्धि बढ़े। तुम आप ही कमर कसो, आलस छोड़ो, कब तक अपने को जंगली, हूस, मूर्ख, बोदे, डरपोक पुकरवाओगे। दौड़ो इस घुड़दौड़ में, जो पीछे पड़े तो फिर कहीं ठिकाना नहीं है। ‘फिर कब-कब राम जनकपुर एहै’ अब की जो पीछे पड़े तो फिर रसातल ही पहुँचोगे। जब पृथ्वीराज को कैद कर के गोर ले गए तो शहाबुद्दीन के भाई गयासुद्दीन से किसी ने कहा कि वह शब्दबेधी बाण बहुत अच्छा मारता है। एक दिन सभी नियत हुई और सात लोहे के तावे बाण से फोड़ने को रखे गए। पृथ्वीराज को लोगों ने पहिले से ही अंधा कर दिया था। संकेत यह हुआ कि जब गयासुद्दीन ‘हूँ’ करे तब वह तावे पर बाण मारे। चंद कवि भी उसके साथ कैदी था। यह सामान देख कर उसने यह दोहा पढ़ा-

अब की चढ़ी कमान को जाने फिर कब चढ़े।

जिन चूके चहुआज इक्के मारय इक्क सर।

उसका संकेत समझ कर जब गयासुद्दीन ने ‘हूँ’ किया तो पृथ्वीराज ने उसी को बाण मार दिया। वही बात अब है। ‘अब की चढ़ी’ इस समय में सरकार का राज्य पाकर और उन्नति का इतना सामान पाकर भी तुम लोग अपने को न सुधारों तो तुम्हीं रहो और वह सुधारना भी ऐसा होना चाहिए कि सब बात में उन्नति हो। धर्म में, घर के काम में, बाहर के काम में, रोजगार में, शिष्टाचार में, चाल चलन में, शरीर में, बल में, समाज में, युवा में, वृद्ध में, स्त्री में, पुरुष में, अमीर में, गरीब में, भारतवर्ष की सब आस्था, सब जाति,सब देश में उन्नति करो। सब ऐसी बातों को छोड़ो जो तुम्हारे इस पथ के कंटक हों। चाहे तुम्हें लोग निकम्मा कहें या नंगा कहें, कृस्तान कहें या भ्रष्ट कहें तुम केवल अपने देश की दीन दशा को देखो और उनकी बात मत सुनो। अपमान पुरस्कृत्य मानं कृत्वा तु पृष्ठतः स्वकार्य साधयेत धीमान कार्यध्वंसो हि मूर्खता। जो लोग अपने को देश-हितैषी मानते हों वह अपने सुख को होम करके, अपने धन और मान का बलिदान करके कमर कस के उठो। देखा-देखी थोड़े दिन में सब हो जाएगा। अपनी खराबियों के मूल कारणों को खोजो। कोई धर्म की आड़ में, कोई सुख की आड़ में छिपे हैं। उन चोरों को वहाँ-वहाँ से पकड़ कर लाओ। उनको बाँध-बाँध कर कैद करो। हम इससे बढ़कर क्या कहें कि जैसे तुम्हारे घर में कोई पुरुष व्याभिचार करने आवे तो जिस क्रोध से उसको पकड़कर मारोगे और जहाँ तक तुम्हारे में शक्ति होगी उसका सत्यानाश करोगे उसी तरह इस समय जो-जो बातें तुम्हारे उन्नति पथ की काँटा हों उनकी जड़ खोद कर फेंक दो। कुछ मत डरो। जब तक सौ, दो सौ मनुष्य बदनाम न होंगे, जात से बाहर न निकाले जाएँगे, दरिद्र न हो जाएँगे, कैद न होंगे वरंच जान से न मारे जाएँगे तब तक कोई देश न सुधरेगा।

अब यह प्रश्न होगा कि भई हम तो जानते ही नहीं कि उन्नति और सुधारना किस चिड़िया का नाम है। किस को अच्छा समझे। क्या लें क्या छोड़ें तो कुछ बातें जो इस शीघ्रता से मेरे ध्यान में आती हैं उनको मैं कहता हूँ सुनो-

सब सुन्नियों का मूल धर्म है। इससे सबसे पहले धर्म की ही उन्नति करनी उचित है। देखो अंग्रेजों की धर्मनीति राजनीति परस्पर मिली है इससे उनकी दिन-दिन कैसी उन्नति हुई है। उनको जाने दो अपने ही यहाँ देखो। तुम्हारे धर्म की आड़ में नाना प्रकार की नीति समाजगठन वैद्यक आदि भरे हुए हैं। दो-एक मिसाल सुनो तुम्हारा बलिया के मेला का यहीं स्थान क्यों चुना गया है जिसमें जो लोग कभी आपस में नहीं मिलते। दस-दस, पाँच-पाँच कोस से ले लोग एक जगह एकत्र होकर आपस में मिलें। एक दूसरे का दुःख-सुख जानें। गृहस्थी के काम की वह चीजें जो गाँव में नहीं मिलतीं यहाँ से ले जाएँ। एकादशी का व्रत क्यों रखा है? जिसमें महिने में दो-एक उपवास से शरीर शुद्ध हो जाए। गंगाजी नहाने जाते हैं तो पहले पानी सिर पर चढ़ा कर तब पैर पर डालने का विधान क्यों है? जिससे तलुए से गरमी सिर पर चढ़कर विकार न उत्पन्न करे। दीवाली इसी हेतु है कि इसी बहाने सालभर में एक बार तो सफाई हो जाए। होली इसी हेतु है कि बसंत की बिगड़ी हवा स्थान-स्थान पर अग्नि जलने से स्वच्छ हो जाए। यही तिहवार ही तुम्हारी म्युनिसिपालिटी है। ऐसे ही सब पर्व, सब तीर्थ, व्रत आदि में कोई हीकमत है। उन लोगों ने धर्मनीति और समाजनीति को दूध पानी की भाँति मिला दिया है। खराबी जो बीच में हुई वह यह है कि उन लोगों ने ये धर्म क्यों मानने लिखे थे। इसका लोगों ने मतलब नहीं समझा और इन बातों को वास्तविक धर्म मान लिया। भाइयों, वास्तविक धर्म तो केवल परमेश्वर के चरणकमल का भजन है। ये सब तो समाज धर्म है। जो देश काल के अनुसार शोधे और बदले जा सकते हैं। दूसरी खराबी यह हुई कि उन्हीं महात्मा बुद्धिमान ऋषियों के वंश के लोगों ने अपने बाप-दादों का मतलब न समझकर बहुत से नए-नए धर्म बना कर शास्त्रों में धर दिए बस सभी तिथि व्रत और सभी स्थान तीर्थ हो गए। सो इन बातों को अब एक बार आँख खोल कर देख और समझ लीजिए कि फलानी बात उन बुद्धिमान ऋषियों ने क्यों बनाई और उनमें देश और काल के अनुकूल और उपकारी हों उनका ग्रहण कीजिए। बहुत-सी बातें जो समाज विरुद्ध मानी जाती हैं किंतु धर्मशास्त्रों में जिनका विधान है उनको मत चलाइए। जैसा जहाज का सफर, विधवा-विवाह आदि। लड़कों की छोटेपन ही में शादी करके उनका बल, बीरज, आयुष्य सब मत घटाइए। आप उनके माँ-बाप हैं या शत्रु हैं। वीर्य उनके शरीर में पुष्ट होने दीजिए। नोन, तेल लकड़ी की फिक्र करने की बुद्धि सीख लेने दीजिए तब उनका पैर काठ में डालिए। कुलीन प्रथा, बहु विवाह आदि को दूर कीजिए। लड़कियों को भी पढ़ाइए किंतु इस चाल में नहीं जैसे आजकल पढ़ाई जाती है जिससे उपकार के बदले बुराई होती है ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल-धर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें। वैष्णव, शास्त्र इत्यादि नाना प्रकार के लोग आपस में बैर छोड़ दें यह समय इन झगड़ों का नहीं। हिंदू, जैन, मुसलमान सब आपस में मिलिए जाति में कोई चाहे ऊँचा हो, चाहे नीचा हो सबका आदर कीजिए। जो जिस योग्य हो उसे वैसा मानिए,छोटी जाति के लोगों का तिरस्कार करके उनका जी मत तोड़िए। सब लोग आपस में मिलिए। मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस हिंदुस्तान में बस कर वे लोग हिंदुओं को नीचा समझना छोड़ दें। ठीक भाइयों की भाँति हिंदुओं से बरताव करें। ऐसी बात जो हिंदुओं का जी दुखाने वाली हो न करें। घर में आग लगे सब जिठानी, द्यौरानी को आपस का डाह छोड़ कर एकसाथ वह आग बुझानी चाहिए। जो बात हिंदुओं का नहीं मयस्सर है वह धर्म के प्रभाव से मुसलमानों को सहज प्राप्त है। उनके जाति नहीं, खाने-पीने में चौका-चूल्हा नहीं, विलायत जाने में रोक-टोक नहीं, फिर भी बड़े ही सोच की बात है कि मुसलमानों ने अभी तक अपनी दशा कुछ नहीं सुधारी। अभी तक बहुतों को यही ज्ञात है कि दिल्ली,लखनऊ की बादशाहत कायम है। यारो, वे दिन गए। अब आलस, हठधरमी यह सब छोड़ो। चलो हिंदुओं के साथ तुम भी दौड़ो एक-एक-दो होंगे। पुरानी बातें दूर करो। मीर हसन और इंदरसभा पढ़ा कर छोटेपन ही से लड़कों का सत्यानाश मत करो। होश संभाला नहीं कि पढ़ी पारसी, चुस्त कपड़ा पहनना और गजल गुनगुनाए-

शौक तिल्फी से मुझे गुल की जो दीदार का था।

न किया हमने गुलिस्ताँ का सबक याद कभी॥

भला सोचो कि इस हालत में बड़े होने पर वे लड़के क्यों न बिगड़ेंगे। अपने लड़कों को ऐसी किताबें छूने भी मत दो। अच्छी से अच्छी उनको तालीम दो। पैंशन और वजीफे या नौकरी का भरोसा छोड़ो। लड़कों को रोजगार सिखलाओ। विलायत भेजो। छोटेपन से मेहनत करने की आदत दिलाओ। सौ-सौ महलों के लाड़-प्यार, दुनिया से बेखबर रहने की राह मत दिखलाओ।

भाई हिंदुओं, तुम भी मतमतांतरों का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जप करो। जो हिंदुस्तान में रहे चाहे किसी जाति, किसी रंग का क्यों न हो वह हिंदू है। हिंदू की सहायता करो। बंगाली, मरट्ठा, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन, ब्राह्मणों, मुसलमानों सब एक का हाथ एक पकड़ो। कारीगरी जिससे तुम्हारे यहाँ बढ़े तुम्हारा रुपया तुम्हारे ही देश में रहे वह करो। देखा जैसे हजार धारा होकर गंगा समुद्र में मिली है वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरह से इंग्लैंड, फरांसीस, जर्मनी, अमेरिका को जाती है। दीआसलाई ऐसी तुच्छ वस्तु भी वहीं से आती है। जरा अपने ही को देखो। तुम जिस मारकीन की धोती पहने हो वह अमेरिका की बनी है। जिस लकलाट का तुम्हारा अंगा है वह इंग्लैंड का है। फरांसीस की बनी कंघी से तुम सिर झारते हो और जर्मनी की बनी चरबी की बत्ती तुम्हारे सामने जल रही है। यह तो वही मसल हुई एक बेफिकरे मंगती का कपड़ा पहिन कर किसी महफिल में गए। कपड़े को पहिचान कर एक ने कहा- अजी अंगा तो फलाने का हे, दूसरा बोला अजी टोपी भी फलाने की है तो उन्होंने हँस कर जवाब दिया कि घर की तो मूछें ही मूछें हैं। हाय अफसोस तुम ऐसे हो गए कि अपने निज की काम के वस्तु भी नहीं बना सकते। भइयों अब तो नींद से जागो। अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो। जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताब पढ़ो। वैसे ही खेल खेलो। वैसा बातचीत करो। परदेसी वस्तु और परदेसी भाषा का भरोसा मत रखो अपने में अपनी भाषा में उन्नति करो।

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दिल्‍ली दरबार दर्पण
भारतेंदु हरिश्चंद्र

 

सब राजाओं की मुलाकातों का हाल अलग-अलग लिखना आवश्यक नहीं, क्योंकि सब के साथ वही मामूली बातें हुईं। सब बड़े-बड़े शासनाधिकारी राजाओं को एक-एक रेशमी झंडा और सोने का तगमा मिला। झंडे अत्यन्त सुंदर थे। पीतल के चमकीले मोटे-मोटे डंडों पर राजराजेश्वरी का एक-एक मुकुट बना था और एक-एक पटरी लगी थी जिस पर झंडा पाने वाले राजा का नाम लिखा था, और फरहरे पर जो डंडे से लटकता था स्पष्ट रीति पर उनके शस्त्र आदि के चिन्ह बने हुए थे। झंडा और तगमा देने के समय श्रीयुत बाइसराय ने हरएक राजा से ये वाक्य कहे…

“मैं श्रीमती महारानी की तरफ से यह झंडा खास आपके लिये देता हूँ, जो उनके हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी की पदवी लेने का यादगार रहेगा। श्रीमती को भरोसा है कि जब कभी यह झंडा खुलेगा आप को उसे देखते ही केवल इस बात का ध्यान न होगा कि इंगलिस्तान के राज्य के साथ आप के खैरखाह राजसी घराने का कैसा दृढ़ संबंध है वरन यह भी कि सरकार की यह बड़ी भारी इच्छा है कि आप के कुल को प्रतापी, प्रारब्धी और अचल देखे। मैं श्रीमती महारानी हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी की आज्ञानुसार आप को यह तगमा भी पहनाता हूँ। ईश्वर करे आप इसे बहुत दिन तक पहिनें और आप के पीछे यह आप के कुल में बहुत दिन तक रह कर उस शुभ दिन को याद दिलावे जो इस पर छपा है।”

शेष राजाओं को उनके पद के अनुसार सोने या चांदी के केवल तगमे ही मिले। किलात के खां को भी झंडा नहीं मिला, पर उन्हें एक हाथी, जिस पर 4000 की लागत का हौदा था, जड़ाऊ गहने, घड़ी, कारचोबी कपड़े, कमखाब के थान वगैरह सब मिलाकर 25000 की चीजें तुहफे में मिलीं। यह बात किसी दूसरे के लिये नहीं हुई थी। इसके सिवाय जो सरदार उनके साथ आए थे उन्हें भी किश्तियों में लगा कर दस हज़ार रुपये की चीजें दी गईं। प्रायः लोगों को इस बात के जानने का उत्साह होगा कि खां का रूप और वस्त्र कैसा था। नि:संदेह जो कपड़ा खां पहने थे वह उनके साथियों से बहुत अच्छा था तौ भी उनकी या उनके किसी साथी की शोभा उन मुगलों से बढ़ कर न थी जो बाज़ार में मेवा लिये घूमा करते हैं। हाँ, कुछ फर्क था तो इतना था कि लम्बी गाभिन दाढ़ी के कारण खां साहिब का चिहरा बढ़ा भयानक था। इन्हें “झंडा न मिलने कारण यह समझना चाहिये कि यह बिल्कुल स्वतंत्र हैं। इन्हें आने और जाने के समय श्रीयुत वाइसराय गलीचे के किनारे तक पहुंचा गए थे, पर बैठने के लिये इन्हें भी वाइसराय के चबूतरे के नीचे वही कुर्सी मिली थी जो और राजाओं को। खां साहिब के मिजाज में रूखापन बहुत है। एक प्रतिष्ठित बंगाली इनके डेरे पर मुलाकात के लिये गए थे। खां ने पूछा, क्‍यों आए हो बाबू साहिब ने कहा, आपकी मुलाकात को। इस पर खां बोले कि अच्छा, आप हमको देख चुके और हम आपको, अब जाइये।

बहुत से छोटे-छोटे राजाओं की बोल-चाल का ढंग भी, जिस समय वे वाइसराय से मिलने आए, थे, संक्षेप के साथ लिखने के योग्य है। कोई तो दूर ही से हाथ जोड़े आए, और दो एक ऐसे थे कि जब एडिकांग के बदन झुकाकर इशारा करने पर भी उन्होंने सलाम न किया तो एडिकांग ने पीठ पकड़ कर उन्हे धीरे से झुका दिया। कोई बैठ कर उठना जानते ही न थे, यहाँ तक कि एडिकांग को “उठो” कहना पड़ता था। कोई झंडा, तगमा, सलामी और खिताब पाने पर भी एक शब्द धन्यवाद का नहीं बोल सके और कोई बिचारे, इनमें से दो ही एक पदार्थ पाकर ऐसे प्रसन्न हुए कि श्रीयुत वाइसराय पर अपनी जान और माल निछावर करने को तैयार थे। सबसे बढ़कर बुद्धिमान हमें एक महात्मा देख पड़े जिनसे वाइसराय ने कहा कि आप का नगर तो तीर्थ गिना जाता है। पर हम आशा करते है कि आप इस समय दिल्ली को भी तीर्थ ही के समान पाते हैं। इस के जबाब में वह बेधड़क बोल उठे कि यह जगह तो सब तीर्थों से बढ़ कर है, जहाँ आप हमारे “खुदा” मौजूद हैं। नौबाब लुहारु की भी अंगरेजी में बात-चीत सुनकर ऐसे बहुत कम लोग होंगे जिन्हें हंसी न आई हो। नौबाब साहिब बोलते तो बड़े बेधड़क धड़ाके से थे, पर उसी के साथ कायदे और मुहावरे के भी खूब हाथ-पांव तोड़ते थे। कितने वाक्य ऐसे थे जिनके कुछ अर्थ ही नहीं हो सकते, पर नौबाब साहिब को अपनी अंगरेजी का ऐसा कुछ विश्वास था कि अपने मुंह से केवल अपने ही को नहीं वरन अपने दोनों लड़कों को भी अंगरेजी, अरबी, ज्योतिष, गणित आदि ईश्वर जाने कितनी विद्याओं का पंडित बखान गए। नौबाब साहिब ने कहा कि हमने और रईसों की तरह अपनी उमर खेल-कूद में नहीं गंवाई वरन लड़कपन ही से विद्या के उपार्जन में चित्त लगाया और पूरे पंडित और कवि हुए। इसके सिवाय नौबाब साहिब ने बहुत से राजभक्ति के वाक्य भी कहे। वाइसराय ने उत्तर दिया कि हम आप की अंगरेजी विद्या पर इतना मुबारक बाद नहीं देते जितना अंगरेज़ों के समान आप का चित्र होने के लिये। फिर नौबाब साहिब् ने कहा कि मैंने इस भारी अवसर के वर्णन में अरबी और फारसी का एक पद्य ग्रंथ बनाया है जिसे मैं चाहता हूँ कि किसी समय श्रीयुत को सुनाऊं। श्रीयुत ने जबाब दिया कि मुझे भी कविता का बड़ा अनुराग है और मैं आपसा एक भाई कवि (Brother-Poet) देख कर बहुत प्रसन्न हुआ, और आपकी कविता सुनने के लिये कोई अवकाश का समय अवश्य निकालूंगा।

29 तारीख को सत्र के अंत में महारानी तंजौर वाइसराय से मुलाकात को आई। ये तास का सब वस्त्र पहने थीं और मुह पर भी तास का नकाब पड़ा हुआ था। इसके सिवाय उन के हाथ पाव दस्ताने और मोजे से ऐसे ढके थे कि सब के जी में उन्हें देखने की इच्छा ही रह गई।  महारानी के साथ मैं उनके पति राजा सखाराम साहिब और दो लड़कों के सिवाय उन की अनुवादक मिसेस फर्थ भी थीं। महारानी ने पहले आकर वाइसराय से हाथ मिलाया और अपनी कुर्सी पर बैठ गई। श्रीयुत वाइसराय ने उनके दिल्ली आने पर अपनी प्रसन्नता प्रगट की और पूछा कि आप को इतनी भारी यात्रा में अधिक कष्ट तो नहीं हुआ। महारानी अपनी भाषा की बोलचाल में बेगम भूपाल की तरह चतुर न थीं, इसीलिये जियादा बातचीत मिसेस फर्थ से हुई, जिन्हें श्रीयुत ने प्रसन्न हो कर “मनभावनी अनुवादक” कहा। वाइसराय की किसी बात के उत्तर में एक बार महारानी के मुह से “यस”! निकल गया, जिस पर श्रीयुत ने बड़ा हर्ष प्रगट किया कि महारानी अंगरेजी भी बोल सकती हैं, पर अनुवादक मेम साहिब ने कहा कि वे अंगरेजी में दो-चार शब्द से अधिक नहीं जानतीं।

इस वर्णन के अंत में यह लिखना अवश्य है कि श्रीयुत वाइसराय लोगों से इतनी मनोहर रीति पर बात-चीत करते थे जिससे सब मगन हो जाते थे और ऐसा समझते थे कि वाइसराय ने हमारा सब से बढ़ कर आदर-सत्कार किया। भेंट होने के समय श्रीयुत ने हर-एक से कहा कि आप से दोस्ती कर के हम अत्यन्त प्रसन्न हुए, और तगमा पहिनाने के समय भी बड़े स्नेह से उन की पीठ पर हाथ रख कर बात की।

1 जनवरी को दरबार का महोत्सव हुआ।
यह दरबार, जो हिंदुस्तान के इतिहास में सदा प्रसिद्ध रहेगा, एक बड़े भारी मैदान में नगर से पाँच मील पर हुआ था। बीच में श्रीयुत वाइसराय का षटकोण चबूतरा था, जिसकी गुम्बदनुमा छत पर लाल कपड़ा चढ़ा और सुनहला रुपहला तथा शीशे का काम बना था। कंगुरे के ऊपर कलसे की जगह श्रीमती राजराजेश्वरी का सुनहला मुकुट लगा था। इस चबूतरे पर श्रीयुत अपने राजसिंहासन में सुशोभित हुए थे। उनके बगल में एक कुर्सी पर लेडी साहिब बैठी थीं और ठीक पीछे खवास लोग हाथों में चंबर लिये और श्रीयुत के ऊपर कारचोबी छत्र लगाए खड़े थे। वाइसराय के सिंहासन के दोनों तरफ दो पेज (दामन बरदार) जिनमें एक श्रीयुत महाराज जम्बू का अत्यन्त सुंदर सबसे छोटा राजकुमार, और दूसरा कर्नल बर्न का पुत्र था, खड़े थे और उनके दहने बाएं और पीछे मुसाहिब ओर सेक्रेटरी लोग अपने अपने स्थानों पर खड़े थे। वाइसराय के चबूतरे के ठीक सामने कुछ दूर पर उससे नीचा एक अर्द्ध चद्राकार चबूतरा था, जिस पर शासनाधिकारी राजा लोग और उनके मुसाहिब, मद्रास ओर बंबई के गवरनर, पजाब, बंगाल और पश्चिमोत्तर देश के लेफ़टिनेन्ट गवरनर, और हिंदुस्तान के कमान्डरइनचीफ़ अपने-अपने अधिकारियों समेत सुशोभित थे। इस चबूतरे की छत बहुत सुंदर नीले रंग के साटन की थी, जिसके आगे लहरियादार छज्जा बहुत सजीला लगा था। लहरिये के बीच-बीच में सुनहले काम के चांद-तारे बने थे। राजाओं की कुर्सियाँ भी नीली साटन से मढ़ी थी और हर-एक के सामने वे झंडे गड़े थे जो उन्हें वाइसराय ने दिये थे, और पीछे अधिकारियों की कुर्सियाँ लगी थीं। जिन पर भी नीली साटन चढ़ी थीं। हर-एक राजा के साथ एक-भारी पोलिटिकल अफसर भी था। इनके सिवाय गवर्नमेंट के भारी-भारी अधिकारी भी यहीं बैठे थे। राजा लोग अपने-अपने प्रान्तों के अनुसार बैठाए गए थे, जिस से ऊँपर नीचे बैठने का बखेड़ा बिल्कुल निकल गया था। सब मिला कर 63 शासनधिकारी राजाओ्रं को इस चबूतरे पर जगह मिली थी, जिन के नाम नीचे लिखे हैं:-

महाराज अजयगढ़, बड़ोंदा, बिजावर, भरतपुर, चरखारी, दतिया, ग्वालियर, इन्दौर, जयपुर, जम्बू, जोधपुर, करौली, किशुनगढ़, पन्‍ना, मैसूर, रीवां, उर्छा, महाराना उदयपुर, महाराव राजा अलवर, बूदी, महाराज राना भलावर, राना धौलपुर, राजा व्रिलासपुर, बमरा, बिरोंदा, चम्बा, छतरपुर, देवास, धार, फ़रीदकोट, जींद, खरोंद, कूचबिहार, मन्‍डी, नाभा नाहन, राजपीपला, रतलाम, समथर, सुकेत, टिहरी, रावा जिगनी टोरी, नौवाब टोंक, पटौदी, मलेरकोटला, लुहारू, जूनागढ़, जौरा, दुजाना, बहावलपुर, जागीरदार अलीपुरा, बेगम भूपाल, निजाम हैदराबाद, सरदार कलसिया, ठाकुर साहिब् भावनगर, मुर्बी, पिपलोदा, जागीरदार पालदेव, मीर खैरपुर, महन्त कोंदका, नन्दगांव और जाम नवानगर।

वाइसराय के सिंहासन के पीछे, परन्तु राजसी चबूतरे की अ्रपेक्षा उस से अधिक पास, धनुषखंड के आकार की श्रेणिया चबूतरों की ओर बनी थीं जो दस भागों में बाँट दी गई थीं। इन पर आगे की तरफ थोड़ी सी कुर्सिया और पीछे सीढ़ीनुमा बेंचे लगी थीं, जिन पर नीला कपड़ा मढ़ा था। यहाँ ऐसे राजाओं को जिन्हें शासन का अधिकार नहीं है और दूसरे सरदारों, रईसों, समाचारपत्रों के सम्पादकों और यूरोपियन तथा हिन्दुस्तानी अधिकारियों को, जो गवर्नमेंट के नेवते में आये थे या जिन्हें तमासा देखने के लिये टिकट मिले थे, बैठने की जगह दी गई थी। ये 3000 के अनुमान होंगे। किलात के खां, गोआ के गवरनर जेनरल, विदेशी राजदूत, बाहरी राज्यों के प्रतिनिधि समाज और अन्य देश संबंध कान्सल लोग की कुर्सियां भी श्रीयुत वाइसराय के पीछे सरदारों और रईसों की चौकियों के आगे लगी थीं।

दरबार की जगह दक्खिन तरफ़ 15000 से ज़ियादा सरकारी फौज हथियार बांधे लैस खड़ी थी, और उत्तर तरफ राजा लोगों की सजीली पलटने भांति-भांति की वरदी पहने और चित्र विचित्र शस्त्र धारण किये परा बंधे खड़ी थीं। इन सब की शोभा देखने से काम रखती थी। इसके सिवाय राजा लोगों के हाथियों के परे जिनपर सुनहली अ्रमारिया कसी थीं। और कारचोबी झूले पड़ी थीं, तोपों की कतारें, सवारों की नंगी तलवारों और भालों की चमक, फरहरो का उड़ना, और दो लाख के अनुमान तमासा देखने वालों की भीड़ जो मैदान में डटी थी ऐसा समा दिखलाती थी जिसे देख जो जहाँ था वहीं हक्‍का-बक्का हो खड़ा रह जाता था। वाइसराय के सिंहासन के दोनों तरफ़ हाइलैन्डर लोगों का गार्ड आव आनर और बाजेवाले थे, और शासनाधिकारी राजाओं के चबूतरे पर जाने के जो रास्ते बाहर की तरफ़ थे उनके दोनों ओर भी गार्ड आव आनर खड़े थे। पौने बारह बजे तक सब दरवारी लोग अपनी अपनी जगहों पर आ गए थे। ठीक बारह बजे श्रीयुत वाइसराय की सवारी पहुंची और धनुष्खंड आकार के चबूतरों की श्रेणियों के पास एक छोटे से खेमे के दरवाजे पर ठहरी। सवारी पहुँचते ही बिल्कुल फौज ने शास्त्रों से सलामी उतारी पर तोपें नहीं छोड़ी गई। खेमे में श्रीयुत ने जाकर स्टार आव इंडिया के परम प्रतिष्ठित पद के ग्राड मास्टर का वस्त्र धारण किया। यहां से श्रीयुत राजसी छत्र के तले अपने राजसिंहासन की ओर बढ़े। श्री लेडी लिटन श्रीयुत के साथ थीं और दोनों दामनबरदार बालक, जिनका हाल ऊपर लिखा गया है, पीछे दो तरफ से दामन उठाए हुए थे। श्रीयुत के आगे-आगे उनके स्टाफ के अधिकारी लोग थे। श्रीयुत के चलते ही बन्दीजन (हेरल्ड लोगों) ने अपनी तुरहियां एक साथ मधुर रीति पर बजाई और फौजी बाजे से ग्रांड मार्च बजने लगा। जब श्रीयुत राजसिंहासन वाले मनोहर चबूतरे पर चढ़ने लगे तो ग्रांडमार्च का बाजा बंद हो गया और नेशनल एंथेम अर्थात्‌ (गौड सेव दि क्वीन- ईश्वर महारानी को चिरंजीवी रखे) का बाजा बजने लगा और गार्ड्स आव आनर ने प्रतिष्ठा के लिये अपने शस्त्र झुका दिये। ज्यों ही श्रीयुत राजसिंहासन पर सुशोभित हुए बाजे बन्द हो गए और सब राजा महाराजा, जो वाइसराय के आने के समय खड़े हो गए थे, बैठ गए। इस के पीछे श्रीयुत ने मुख्यबन्दी (चीफ़ हेरल्ड) को आज्ञा की कि श्रीमती महारानी के राजराजेश्वरी की पदवी लेने के विषय में अंगरेजी में राजाज्ञापत्र पढ़ो। यह आशा होते ही बन्दीजनों ने, जो दो पांती में राज्यसिंहासन के चबूतरे के नीचे खड़े थे, तुरही बजाई और उसके बंद होने पर मुख्य बंदी ने नीचे की सीढ़ी पर खड़े होकर बड़े ऊँचे स्वर से राजाज्ञापत्र पढ़ा, जिसका उल्था यह है…
महारानी विक्टोरिया।

ऐसी अवस्था में कि हाल में पार्लियामेंट की जो सभा हुई उनमें एक ऐक्ट पास हुआ है जिसके द्वारा परम कृपालु महारानी को यह अधिकार मिला है कि यूनाइटेड किंगडम और उसके आधीन देशों की राज संबंधी पदवियों और प्रशस्तियों में श्रीमती जो कुछ चाहें बढ़ा लें और इस ऐक्ट में यह भी वर्णन है कि ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैण्ड के एक में मिल जाने के लिये जो नियम बने थे उन के अनुसार भी यह अधिकार मिला था कि यूनाइटेड किंगडम और उसके आधीन देशों की राजसंबंधी पदवी और प्रशस्ति इस संयोग के पीछे वही होगी जो श्रीमती ऐसे राजाज्ञापत्र के द्वारा प्रकाश करेंगी, जिस पर राज की मुहर छपी रहे। और इस ऐक्ट में यह भी वर्णन है कि ऊपर लिखे हुए नियम और उस राजाज्ञापत्र के अनुसार जो 1 जनवरी सन्‌ 1801 को राजसी मुहर होने के पीछे प्रकाश किया गया, हमने यह पदवी ली “विक्टोरिया ईश्वर की कृपा से ग्रेट व्रिटेन और आयर-लेण्ड के संयुक्त राज की महारानी स्वधर्म रक्षिणी”, और इस ऐक्ट में यह भी वर्णन है कि उस नियम के अ्रनुसार जो हिंदुस्तान के उत्तम शासन के हेतु बनाया गया था हिंदुस्तान के राज का अधिकार, जो उस समय तक हमारी ओर से ईस्ट इंडिया कम्पनी को सुपुर्द था, अब हमारे निज अधिकार में आ गया और हमारे नाम से उसका शासन होगा। इस नये अधिकार की हम कोई विशेष पदवी ले, और इन सब वर्णनों के अनन्तर इस ऐक्ट में यह नियम सिद्ध किया गया है कि ऊपर लिखी हुई बात के स्मरण निमित कि हम ने अपने किये हुए राजज्ञापत्र के द्वारा हिंदुस्तान के शासन का अधिकार अपने हाथ में ले लिया हमको यह योग्यता होगी कि यूनाइटेड किंगडम और उसके आधीन देशों की राजसंबंधी पदवियों और प्रशस्तियों में जो कुछ उचित समझें; बढ़ा लें। इसलिये अब हम अपने प्रिवी-काउन्सिल की सम्मति से योग्य समझ कर यह प्रचलित और प्रकाशित करते हैं कि आगे को, जहाँ सुगमता के साथ हो सके, सब अवसरों में और सम्पूर्ण राजपत्रो पर जिनमें हमारी पदवियां और प्रशस्तियां लिखी जाती हैं, सिवाय सनद, कमिशन, अधिकारदायक पत्र, दानपत्र, आज्ञापत्र, नियोगपत्र और इसी प्रकार के दूसरे पत्रों के जिनका प्रचार यूनाइटेड किंगडम के बाहर नहीं है, यूनाइटेड किंगडम और उसके आधीन देशो की राजसंबंधी पदवियों मे नीचे लिखा हुआ वाक्य मिला दिया जाय, अर्थात्‌ लैटिन भाषा मैं “इन्डिई एम्परेट्रिक्स” (हिंदुस्तान की राज-राजेश्वरी) और अंगरेजी भाषा में “एम्प्रेंस आव इंडिया”। और हमारी यह इच्छा और प्रसन्नता है कि उन राजसंबंधी पत्रों में जिन का वर्णन ऊपर हुआ है यह नई पदवी न लिखी जाय। और हमारी यह भी इच्छा और प्रसन्नता है कि सोने, चांदी और ताबे के सब सिक्के, आज कल यूनाइटेड किगडम मे प्रचलित है और नीतिविरुद्ध नहीं गिने जाते और इसी प्रकार तथा आकार के दूसरे सिक्‍के जो हमारी आज्ञा से अब छापे जायेंगे, हमारी नई पदवी लेने से भी नीतिविदद्ध न समझे जायेंगे, और जो सिक्के यूनाइटेड किंगडम के आधीन देशो में छापे जायेंगे और जिन का वर्णन राजाज्ञापत्र में उन जगहों के नियमित और प्रचलित द्रव्य करके किया गया और जिनपर हमारी सम्पूर्ण पदवियां या प्रशस्तियां उनका कोई भाग रहे, और वे सिक्के जो राजाज्ञापत्र के अनुसार अ्रब छापे और चलाए जायेंगे इस नई पदवी के बिना भी उस देश के नियमित और प्रचलित द्रव्य समझे जायेंगे, जब तक कि इस विषय में हमारी कोई दूसरी प्रसन्नता न प्रगट की जायगी। हमारी विन्डसर को कचहरी से 28 अप्रैल को एक हजार आठ सौ छिहत्तर के सन्‌ में हमारे राज के उनतालीसवें बरस में प्रसिद्ध किया गया।
ईश्वर महरानी को चिरंजीवी रक्खे।

जब चीफ़ हेरल्ड राजाज्ञापत्र को अंग्रेजी में पढ़ चुका तो हेरल्ड लोगों ने फिर तुरही बजाई। इसके पीछे फारेन सेक्रेटरी ने उर्दू में तर्जुमा पढ़ा। इस के समाप्त होते ही बादशाही झंडा खड़ा किया गया और तोपखाने से, जो दरबार के मैदान में मौजूद था, 101 तोपों की सलामी हुई। चौंतीस-चौंतीस सलामी होने के बाद बन्दूकों की बाढ़ें दग़ीं और जब 101 सलामियां तोपों से हो चुकी तब फिर बाढ़ छूटी और नैशनल एंथेम का बाजा बजने लगा।

इस के अनन्तर श्रीयुत वाइसराय समाज को ऐड्रेस करने के अभिप्राय से खड़े हुए। श्रीयुत वाइसराय के खड़े होते ही सामने के चबूतरे पर जितने बढ़े-बढ़े राजा लोग और गवरनर आदि अधिकारी थे खड़े हो गए, पर श्रीयुत ने बड़े ही आदर के साथ दोनों हाथों से हिन्दुस्तानी रीति पर कई बार सलाम करके सब से बैठ जाने का इशारा किया। यह काम श्रीयुत का, जिससे हम लोगों की छाती दूनी हो गई, पायोनियर सरीखे अंगरेजी समाचार पन्नों के सम्पादकों को बहुत बुरा लगा, जिनकी समझ में वाइसराय का हिन्दुस्तानी तरह पर सलाम करना बढ़े हेठाई और लज्जा की बात थी। खैर, यह तो इन अंगरेजी अखबारवालों की मामूली बातें हैं। श्रीयुत वाइसराय ने जो उत्तम ऐड्रेस पढ़ा उसका तर्जुमा हम नीचे लिखते हैं:-

सन्‌ 1858 ईसवी की 1 नवंबर को श्रीमती महारानी की ओर से एक इश्तिहार जारी हुआ था जिसमें हिंदुस्तान के रईसों और प्रजा को श्रीमती की कृपा का विश्वास कराया गया था जिसको उस दिन से आज तक वे लोग राज संबंधी बातों में बड़ा अनमोल प्रमाण समझते हैं।

वे प्रतिज्ञा एक ऐसी महारानी की ओर से हुई थी जिन्होंने आज तक अपनी बात को कभी नहीं तोड़ा, इसलिये हमें अपने मुँह से फिर उन का निश्चय कराना व्यर्थ है। 18 बरस की लगातार उन्नति ही उनको सत्य करती है और यह भारी समागम भी उनके पूरे उतरने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इस राज के रईस और प्रजा जो अपनी-अपनी परम्परा की प्रतिष्ठा निर्विध्न भोगते रहे और जिनकी अपने उचित लाभों की उन्नति के यत्न में सदा रक्षा होती रही उनके वास्ते सरकार की पिछले समय की उदारता और न्याय आगे के लिये पक्की जमानत हो गई है।

हम लोग इस समय श्रीमती महारानी के राजराजेश्वरी की पदवी लेने का समाचार प्रसिद्ध करने के लिये इकट्ठे हुए हैं, और यहां महारानी के प्रतिनिधि होने की योग्यता से मुझे अवश्य है कि श्रीमती के उस कृपायुक्त अ्भिप्राय को सब पर प्रगट करूँ जिसके कारण श्रीमती ने अपने परम्परा की पदवी और प्रशस्ति में एक पद और बढ़ाया।

पृथ्वी पर श्रीमती महारानी के अधिकार में जितने देश हैं जिनका विस्तार भूगोल के सातवें भाग से कम नहीं है और जिनमें तीस करोड़ आदमी बसते हैं। उनमें से इस और प्राचीन राज के समान श्रीमती किसी दूसरे देश पर कृपा-दृष्टि नहीं रखती।

सब जगह और सदा इगलिस्तान के बादशाहों की सेवा में प्रवीण और परिश्रमी सेवक रहते आए हैं, परन्तु उनसे बढ़ कर कोई पुरुषार्थी नहीं हुए, जिन की बुद्धि और वीरता से हिंदुस्तान का राज सरकार के हाथ लगे और बराबर अधिकार में बना रहा। इस कठिन काम में जिसमें श्रीमती की अंगरेजी और देशी प्रजा दोनों ने मिल कर भली भांति परिश्रम किया है श्रीमती के बड़े-बड़े स्नेही और सहायक राजाओं ने भी शुभचिंतकता के साथ सहायता दी है जिनकी सेना ने लड़ाई की मिहनत और जीत में श्रीमती की सेना का साथ दिया है, बुद्धिपूर्वक सत्यशीलता के कारण मेल के लाभ बने रहे और फैलते गए हैं, और जिन का आज यहां वर्त्तमान होना, जो कि श्रीमती के राजराजेश्वरी की पदवी लेने का शुभ दिन है, इस बात का प्रमाण है कि वे श्रीमती के अधिकार की उत्तमता में विश्वास रखते हैं और उनके राज में एका बने रहने में अपना भला समझते हैं।

श्रीमती महारानी इस राज को जिसे उन के पुरुषों ने प्राप्त किया और श्रीमती ने दृढ़ किया। एक बढ़ा भारी पैतृक धन समझती हैं जो रक्षा करने और अपने वंश के लिये संपूर्ण छोड़ने के योग्य है, और उस पर अधिकार रखने से अपने ऊपर यह कर्त्तव्य जानती हैं कि अपने बड़े अधिकार को इस देश की प्रजा की भलाई के लिये यहाँ के रईसो के हक्कों पर पूरा-पूरा ध्यान रख कर काम में लावें। इसलिये श्रीमती का यह राजसी अ्रभिप्राय है कि अपनी पदवियों पर एक और ऐसी पदवी बढ़ावे जो आगे सदा को हिंदुस्तान के सब रईसो और प्रज्ञा के लिये इस बात का चिन्ह हो कि श्रीमती के और उन के लाभ एक हैं और महारानी की ओर राजभक्ति और शुभचितकता रखनी उन पर उचित है।

वे राजसी घरानों की श्रेणिया जिनका अधिकार बदल देने और देश की उन्नति करने के लिये ईश्वर ने अंगरेजी राज को यहाँ जमाया, प्राय: अच्छे और बड़े बादशाहों से खाली न थीं परन्तु उनके उत्तराधिकारियों के राज्य प्रबंध से उनके राज्य के देशों में मेंल न बना रह सका। सदा आपस में झगड़ा होता रहा और अधेर मचा रहा। निबल लोग बली लोगों के शिकार थे और बलवान अपने मद के। इस प्रकार आपस की काट मार और भीतरी झगड़ों के कारण जड़ से हिल कर और निर्जीव होकर तैमूरलंग का भारी घराना अंत को मिट्टी में मिल गया, और उसके नाश होने का कारण यह था कि उससे पश्चिम के देशों की कुछ उन्नति न हो सकी।

आजकल ऐसी राजनीति के कारण जिससे सब जाति और सब धर्म के लोगों की समान रक्षा होती है श्रीमती की हर-एक प्रजा अपना समय निर्विध्न सुख से काट सकती है। सरकार के समभाव के कारण हर आदमी बिना किसी रोक-टोक के अपने धर्म के नियमों और रीतों को बरत सकता है। राजराजेश्वरी का अधिकार लेने से श्रीमती का अभिप्राय किसी को मिटाने या दबाने का नहीं है वरन रक्षा करने और अच्छी तरह राह बतलाने का। सारे देश की शीघ्र उन्नति और उसके सब प्रान्तों की दिन पर दिन वृद्धि होने से अंगरेजी राज के फल सब जगह प्रत्यक्ष देख पड़ते हैं।

हे अंगरेजी राज के कार्यकर्त्ता और सच्चे अधिकारी लोग, -वह आप ही लोगों के लगातार परिश्रम का गुण है कि ऐसे-ऐसे फल प्राप्त हैं, और सब के पहले आप ही लोगों पर मैं इस समय श्रीमती की ओर से उनकी कृतज्ञता और विश्वास को प्रगट करता हूँ। आप लोगों ने इस भारी राज की भलाई के लिये उन प्रतिष्ठित लोगों से जो आप के पहले इन कामों पर नियत थे किसी प्रकार कम कष्ट नहीं उठाया है और आप लोग बराबर ऐसे साहस, परिश्रम और सचाई के साथ अपने तन, मन को अर्पंण करके काम करते रहे जिससे बढ़कर कोई दृष्टांत इतिहासों में न मिलेगा।

कीर्ति के द्वार सब के लिये नहीं खुले हैं परन्तु भलाई करने का अवसर सब किसी को जो उसकी खोज रखता हो मिल सकता है। यह बात प्रायः कोई गवर्नमेन्ट नहीं कर सकती कि अपने नौकरों के पदों को जल्द-जल्द बढ़ाती जाय, परन्तु मुझे विश्वास है कि अंगरेजी सरकार की नौकरी में ‘कर्तव्य का ध्यान’ और ‘स्वामी की सेवा में तन, मन को अर्पण कर देना’ ये दोनों बातें ‘निज प्रतिष्ठा’ और ‘लाभ’ की अपेक्षा सदा बढ़ कर समझी जायेगी। यह बात सदा से होती आई है और होती रहेगी कि इस देश के प्रबंध के बहुत से भारी-भारी और लाभदायक काम प्रायः बड़े-बड़े प्रतिष्ठित अधिकारियों ने नहीं किये हैं वरन जिले के उन अफ़सरो ने जिनकी धैर्यपूर्वक चतुराई और साहस पर सम्पूर्ण प्रबंध का अच्छा उतरना सब प्रकार आधीन है।

श्रीमती की ओर से राजकाज संबंधी और सेना संबंधी अधिकारियों के विषय में जितनी गुणग्राहकता और प्रशंसा प्रगट करूं थोड़ी है क्योंकि ये तमाम हिंदुस्तान में ऐसे सूक्ष्म और कठिन कामों को अत्यन्त उत्तम रीति पर करते रहे हैं और जिनसे बढ़कर सूक्ष्म और कठिन काम सरकार अधिक से अधिक विश्वासपात्र मनुष्य को नहीं सौंप सकती। हे राजकाज संबंधी और सेना संबंधी अधिकारियों, -जो कमसिनी में इतने भारी ज़िम्मे के कामों पर मुक़र्रर होकर बड़े परिश्रम चाहनेवाले नियमों पर तन, मन से चलते हों और जो निज पौरुष से उन जातियों के बीच राज्य प्रबन्ध के कठिन काम को करते हों जिनकी भाषा धर्म और रीतें आप लोगों से भिन्न हैं- मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि अपने-अपने कठिन कामों को दृढ़ परन्तु कोमल रीत पर करने के समय आपको इस बात का भरोसा रहे कि जिस समय आप लोग अपने जाति की बड़ी कीर्ति को थामे हुए हैं और अपने धर्म के दयाशील आज्ञाओं को मानते है उसी के साथ आ्रप इस देश के सब जाति और धर्म के लोगों पर उत्तम प्रबन्ध के अनमोल लाभों को फैलाते हैं।

उस पच्छिम की सभ्यता के नियमों को बुद्धिमानी के साथ फैलाने के लिये जिससे इस भारी राज का धन बराबर बढ़ता गया हिंदुस्तान पर केवल सरकारी अधिकारियों ही का एहसान नहीं है, वरन यदि मैं इस अवसर पर श्रीमती की उस यूरोपियन प्रजा को जो हिंदुस्तान में रहती है पर सरकारी नौकर नहीं है, इस बात का विश्वास कराऊं कि श्रीमती उन लोगों के केवल उस राजभक्ति ही की गुण-ग्राहकता नहीं करतीं जो वे लोग उनके और उनके सिंहासन के साथ रखते हैं किन्तु उन लाभों को भी जानती और मानती हैं जो उन लोगों के परिश्रम से हिंदुस्तान को प्राप्त होते हैं तो मैं अपनी पूज्य स्वामिनी के विचारों को अच्छी तरह न वर्णन करने का दोषी ठहरूंगा।

इस अभिप्राय से कि श्रीमती को अपने राज के इस उत्तम भाग की प्रजा को सरकार की सेवा या निज की योग्यता के लिये गुणग्राहकता देखाने का विशेष अवसर मिले श्रीमती ने कृपापूर्वक केवल स्टार ऑफ़ इंडिया के परम प्रतिष्ठित पद वालों और आर्डर आफ ब्रिटिश इंडिया के अधिकारियों की संख्या ही में थोड़ी सी बढ़ती नहीं की है किंतु इसी हेतु एक बिलकुल नया पद और नियत किया है जो ‘आर्डर ऑफ दि इन्डियन एम्पायर’ कहलावेगा।

हे हिंदुस्तान की सेना के अंगरेजी और देशी अफसर और सिपाहियों, -आप लोगों ने जो भारी-भारी काम बहादुरी के साथ लड़-भिड़ कर सब अवसरों पर किये और इस प्रकार श्रीमती की सेना की युद्धकीर्ति को थामे रहे उसका श्रीमती अभिमान के साथ स्मरण करती हैं। श्रीमती इस बात पर भरोसा रख कर कि आगे को भी सब अवसरों पर आप लोग उसी तरह मिल-जुल कर अपने भारी कर्तव्य को सच्चाई के साथ पूरा करेंगे, अपने हिंदुस्तानी राज में मेल और अमन चैन बनाए रखने के विश्वास का काम आप लोगों ही को सुपुर्द करती हैं।

हे वालंटियर सिपाहियों, -आप लोगों के राजभक्ति पूर्ण और सफल यत्न जो इस विषय में हुए हैं कि यदि प्रयोजन पड़े तो आप सरकार की नियत सेना के साथ मिल कर सहायता करें इस शुभ अवसर पर हृदय से धन्यवाद पाने के योग्य हैं।

हे इस देश के सरदार और रईस लोग, -जिनकी राजभक्ति इस राज के बल को पुष्ट करने वाली है और जिनकी उन्नति इसके प्रताप का कारण है, श्रीमती महारानी आप को यह विश्वास करके धन्यवाद देती हैं कि यदि इस राज के लाभों में कोई बिध्न डालें या उन्हें किसी तरह का भय हो तो आप लोग उसकी रक्षा के लिये तैयार हो जायेंगे। मैं श्रीमती की ओर से उनके नाम से दिल्ली आने के लिये आप लोगों का जी से स्वागत करता हूँ, और इस बड़े अवसर पर आप लोगों के इकट्ठे होने को इंग्लिस्तान के राजसिंहासन की और आप लोगों की उस राजभक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण गिनता हूँ और श्रीमान‌ प्रिन्स आफ बेल्स के इस देश में आने के समय आप लोगों ने दृढ़ रीत पर प्रगट की थी। श्रीमती महारानी आप के स्वार्थ को अपना स्वार्थ समझती हैं, और अंग्रेजी राज के साथ उसके कर देने वाले और स्नेही राजा लोगों का जो शुभ संयोग से संबंध है उस के विश्वास को दृढ़ करने और उसके मेल-जोल को अचल करने ही के अभिप्राय से श्रीमती ने अनुग्रह करके वह राजसी पदवी ली है जिसे आज हम लोग प्रसिद्ध करते हैं।

हे हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी के देसी प्रजा लोग, -इस राज की वर्तमान दशा और उसके नित्य के लाभ के लिये अवश्य है कि उसके प्रबन्ध को जाँचने और सुधारने का मुख्य अधिकार ऐसे अंगरेजी अफसरों को सुपुर्द किया जाय जिन्होंने राज-काज के उन तत्वों को भली-भाँति सीखा है जिनका बरताव राज-राजेश्वरी के अधिकार स्थिर रहने के लिये अवश्य है। इन्हीं राजनीति जानने वाले लोगों के उत्तम प्रयत्नो से हिंदुस्तान सभ्यता में दिन-दिन बढ़ता जाता है और यही उसके राजकाज संबंधी महत्व का हेतु और नित्य बढ़ने वाली शक्ति का गुप्त कारण है, और इन्हीं लोगों के द्वारा पच्छिम देश का शिल्प, सभ्यता और विज्ञान, (जिनके कारण आज दिन यूरोप लड़ाई और मेल दोनों में सबसे बढ़-चढ़ कर है) बहुत दिनों तक पूरब के देशों में वहाँ बालों के उपकार के लिये प्रचलित रहेगा।

परन्तु हे हिन्दुस्तानी लोग! आप चाहे जिस जाति या मत के हों यह निश्चय रखिये कि आप इस देश के प्रबन्ध में योग्यता के अनुसार अंग्रेजों के साथ भली-भाँति काम पाने के योग्य हैं, और ऐसा होना पूरा न्याय भी है, और इंग्लिस्तान तथा हिंदुस्तान के बड़े राजनीति जानने वाले लोग और महारानी की राजसी पार्लमेन्ट व्यवस्थापकों ने बार-बार इस बात को स्वीकार भी किया है। गवर्नमेन्ट आव इंडिया ने भी इस बात को अपने सम्मान और राजनीति के सब अभिप्रायों के लिये अनुकूल होने के कारण माना है। इसलिये गवर्नमेन्ट आव इंडिया इन बरसों में हिंदुस्तनियों की कारगुजारी के ढंग में, मुख्यकर बड़े-बड़े अधिकारियों के काम में पूरी उन्नति देखकर संतोष प्रगट करती है।

इस बड़े राज्य का प्रबंध जिन लोगों के हाथ में सौंपा गया हैं उनमें केवल बुद्धि ही के प्रबल होने की आवश्यकता नहीं हैं वरन उत्तम आचरण और सामाजिक योग्यता की भी वैसी ही आवश्यकता है। इसलिये जो लोग कुल, पद, और परम्परा के अधिकार के कारण आप लोगों में स्वाभाविक ही उत्तम है उन्हें अपने को और संतान की केवल उस शिक्षा के द्वारा योग्य करना है जिससे कि वे श्रीमती महारानी अपनी राजराजेश्वरी की गवर्नमेन्ट की राजनीति के तत्वों को समझें और काम में ला सकें और इस रीत से उन पदों के योग्य हों जिनके द्वार उनके लिये खुले हैं।

राजभक्ति, धर्म, अपक्षपात, सत्य और साहस देश संबंधी मुख्य धर्म है उनका सहज रीत पर बरताव करना आप लोगों के लिये बहुत आवश्यक है, और तब श्रीमती की गवर्नमेन्ट राज के प्रबन्ध में आप लोगों की सहायता बड़े आदर से अंगीकार करेगी, क्योंकि पृथ्वी के जिन-जिन भागों में सरकार का राज है वहाँ गवर्नमेन्ट अपनी सेना के बल पर उतना भरोसा नहीं करती जितना कि अपनी सन्तुष्ट और एकजी प्रजा की सहायता पर जो अपने राजा के वर्तमान रहने ही में अपना नित्य मंगल समझ कर सिंहासन के चारों ओर जी से सहायता करने के लिये इकट्ठे हो जाते हैं।

श्रीमती महारानी निबल राज्यों को जीतने या आसपास की रियासतों को मिला लेने से हिंदुस्तान के राज की उन्नति नहीं समझती वरन इस बात में कि इस कोमल ओर न्याययुक्त राजशासन को निरुपद्रव बराबर चलाने में इस देश की प्रजा क्रम से चतुराई और बुद्धिमानी के साथ भागी हो। जो उनका स्नेह और कर्तव्य केवल अपने ही राज से नहीं है वरन श्रीमती शुद्ध चित्त से यह भी इच्छा रखती हैं कि जो राजा लोग इस बड़े राज की सीमा पर हैं और महारानी के प्रताप की छाया में रहकर बहुत दिनों से स्वाधीनता का सुख भोगते आते हैं उनसे निष्कपट भाव और मित्रता को दृढ़ रक्खें। परन्तु यदि इस राज के अमन-चैन में किसी प्रकार के बाहरी उपद्रव की शंका होगी तो श्रीमती हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी अपने पैतृक राज की रक्षा करना खूब जानती हैं। यदि कोई विदेशी शत्रु हिंदुस्तान के इस महाराज पर चढ़ाई करे तो मानो उसने पूरब के सब राजाओं से शत्रुता की, और उस दशा में श्रीमती जो अपने राज के अपार बल, अपने स्नेही और कर देने वाले राजाओं की वीरता और राजभक्ति और अपनी प्रजा के स्नेह और शुभ चिन्तकता के कारण इस बात की भरपूर शक्ति है कि उसे परास्त करके दंड दे।

इस अवसर पर उन पूरब के राजाओं के प्रतिनिधियों का वर्त्तमान होना जिन्होंने दूर-दूर देशों से श्रीमती को इस शुभ समारम्भ के लिये बधाई दी है, गवर्ममेन्ट आव इंडिया के मेल के अभिप्राय, और आस-पास के राजाओं के साथ उसके मित्र का स्पष्ट प्रमाण है। मैं चाहता हूँ कि श्रीमती की हिन्दुस्तानी गवर्नमेन्ट की तरफ से श्रीयुक्त खानकिलात, और उन राजदूतों को जो इस अवसर पर श्रीमती के स्नेही राजाओं के प्रतिनिधि होकर दूर-दूर से अंग्रेजी राज में आए हैं, और अपने प्रतिष्ठित पाहुने श्रीयुत गवर्नर जेनरल गोआ, और बाहरी कान्सलों का स्वागत करूँ।

हे हिंदुस्तान के रईस ओर प्रजा लोग, -मैं आनन्द के साथ आप लोगों को वह कृपा पूर्वक संदेशा जो श्रीमती महारानी आप लोगों की राजराजेश्वरी ने आज आप लोगों को अपने राजसी और राजेश्वरीय नाम से भेजा है सुनाता हूँ। जो वाक्य श्रीमती के यहाँ से आज सबेरे तार के द्वारा मेरे पास पहुँचे हैं ये हैं:- “हम विक्टोरिया ईश्वर की कृपा से, संयुक्त राज (ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैन्ड) की महारानी, हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी, अपने वाइसराय के द्वारा अपने सब राज-काज संबंधी और सेना संबंधी अधिकारियों, रईसों, सरदारों और प्रजा को जो इस समय दिल्ली में इकट्ठे हैं अपना राजसी और राजराजेश्वरीय आशीर्वाद भेजते हैं और उस भारी कृपा और पूर्ण स्नेह का विश्वास कराते हैं जो हम अपने हिंदुस्तान के महाराज्य की प्रजा की ओर रखते हैं। हमको यह देखकर जी से प्रसन्नता हुई कि हमारे प्यारे पुत्र का इन लोगों ने कैसा कुछ आदर सत्कार किया, और अपने कुल और सिंहासन की ओर उनकी राजभक्ति और स्नेह के इस प्रमाण से हमारे जी पर बहुत असर हुआ। हमें भरोसा है कि इस शुभ अवसर का यह फल होगा कि हमारे और हमारी प्रजा के बीच स्नेह और दृढ़ होगा, और सब छोटे-बड़े को इस बात का निश्चय हो जायेगा कि हमारे राज में उन लोगों को स्वतंत्रता, धर्म और न्याय प्राप्त हैं, और हमारे राज का अभिप्राय और इच्छा सदा यही है कि उनके सुख की वृद्धि, सौभाग्य की अधिकता, और कल्याण की उन्नति होती रहे।”

मुझे विश्वास है कि आप लोग इन कृपामय वाक्यों की गुणग्राहकता करेंगे।
ईश्वर विक्टोरिया संयुक्त राज को महारानी और हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी की रक्षा करे।

इस अड्रेस के समाप्त होते ही नैशनल ऐन्थेम का बाजा बजने लगा और सेना ने तीन बार हुर्रे शब्द की आनन्दध्वनि की। दरबार के लोगों ने भी परम उत्साह से खड़े होकर हुर्रे शब्द और हथेलियों की आनन्दध्वनि करके अपने जी का उमंग प्रगट किया। महाराज सेंधिया, निजाम की ओर से सर सालारजंग, राजपुताना के महाराजों की तरफ़ से महाराज जयपुर, बेगम भूपाल, महाराज कश्मीर, और दूसरे सरदारों ने खड़े होकर एक दूसरे को बधाई दी और अपनी राजभक्ति प्रगट की। इस के अनन्तर श्रीयुत वाइसराय ने आज्ञा की कि दरबार हो चुका और अपनी चार घोड़े की गाड़ी पर चढ़कर अपने खेमे को रवाने हुए।

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राही | सुभद्रा कुमारी चौहान | हिन्दी कहानी https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b9%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a5%81%e0%a4%ad%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%81%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%9a%e0%a5%8c%e0%a4%b9%e0%a4%be/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%25b0%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25b9%25e0%25a5%2580-%25e0%25a4%25b8%25e0%25a5%2581%25e0%25a4%25ad%25e0%25a4%25a6%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25b0%25e0%25a4%25be-%25e0%25a4%2595%25e0%25a5%2581%25e0%25a4%25ae%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25b0%25e0%25a5%2580-%25e0%25a4%259a%25e0%25a5%258c%25e0%25a4%25b9%25e0%25a4%25be https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b9%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a5%81%e0%a4%ad%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%81%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%9a%e0%a5%8c%e0%a4%b9%e0%a4%be/#respond Mon, 05 Jun 2023 18:58:33 +0000 https://hindisahityasangam.com/?p=699 राही सुभद्रा कुमारी चौहान   तेरा नाम क्या है? राही तुम्हें किस अपराध में सजा हुई? चोरी की थी सरकार। चोरी? क्या चुराया था? नाज की गठरी। कितना अनाज था? होगा पाँच छह सेर। और सजा कितने दिन की है? साल भर की। तो तूने चोरी क्यों की? मजदूरी करती तब भी दिन भर में […]

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राही
सुभद्रा कुमारी चौहान

 

तेरा नाम क्या है?

राही

तुम्हें किस अपराध में सजा हुई?

चोरी की थी सरकार।

चोरी? क्या चुराया था?

नाज की गठरी।

कितना अनाज था?

होगा पाँच छह सेर।

और सजा कितने दिन की है?

साल भर की।

तो तूने चोरी क्यों की?

मजदूरी करती तब भी दिन भर में तीन-चार आने पैसे मिल जाते।

हमें मजदूरी नहीं मिलती सरकार। हमारी जाति माँगरोरी है। हम केवल मांगते-खाते है।

और भीख न मिले तो?

तो फिर चोरी करते है।

उस दिन घर में खाने को नहीं था। बच्चे भूख से तड़प रहे थे। बाजार में बहुत देर तक माँगा। बोझा ढ़ोने के लिए टोकरा लेकर भी बैठी रही। पर कुछ नही मिला। सामने किसी का बच्चा रो रहा था। उसे देखकर मुझे अपने भूखे बच्चे की याद आ गई। वहीं पर किसी की अनाज की गठरी रखी हुई थी। उसे लेकर अभी भाग ही रही थी कि पुलिस ने पकड़ लिया।

अनीता- फिर तूने कहा नहीं कि बच्चे भूखे थे, इसलिए चोरी की। संभव है इस बात से मजिस्ट्रेट कम सजा देता।

राही- हम गरीबों की कोई नहीं सुनता सरकार! बच्चे आये थे। कचहरी में मैंने सब कुछ कहा, पर किसी ने नहीं सुना।

अनीता- “अब तेरे बच्चे किसके पास है? उसका बाप है?”

राही- “उसका बाप मर गया सरकार!” जेल में उसे मारा था। और वही अस्पताल में वह मर गया। अब बच्चों का कोई नहीं है।

अनीता- तो तेरे बच्चों का बाप भी जेल में ही मरा। वह क्यों जेल आया था?

राही- उसे तो बिना कसूर के ही पकड़ लिया था। सरकार ताड़ी पीने को गया था। दो चार दोस्त उसके साथ थे। मेरे घर वालों का एक वक्त पुलिस वाले के साथ झगड़ा हो गया था। उसी का उसने बदला लिया। 109 में उसका चलान करके साल भर की सजा दिला दी वहीं मर गया।

अनीता- अच्छा जा अपना काम कर। अनीता सत्याग्रह करके जेल में आई थी। पाहिले उसे ‘बी’ क्लास दिया गया था। फिर उसके घरवालों ने लिखा-पढ़ी करके उसे ‘ए’ क्लास में दिलवा दिया।

अनीता के सामने एक प्रश्न था? वह सोच रही थी, देश की दरिद्रता और इन निरीह गरीबों के कष्टों को दूर करने का कोई उपाय नहीं है? हम सभी पमात्मा के संतान हैं। एक ही देश के निवासी कम से कम हम सबको खाने-पहनने का सामान अधिकार तो है ही? फिर यह क्या बात है कि कुछ लोग तो बहुत आराम करते है और कुछ लोग पेट के अन्न के लिए चोरी करते हैं? उसके बाद विचारक के अदूरदर्शिता के कारण या सरकारी वकील के चातुर्यपूर्ण ज़िरह के कारण छोटे-छोटे बच्चों की माताएँ जेल भेज दी जाती है। उनके बच्चे भूखों मरने के लिए छोड़ दिए जाते हैं। एक ओर तो यह कैदी है, जो जेल आकर सचमुच जेल जीवन के कष्ट उठाती है, और दूसरी ओर हम लोग जो अपनी देशभक्ति का ढिंढोरा पिटते हुए जेल आते हैं। हमें  आमतौर से दूसरे कैदियों के मुकाबले अच्छा वर्ताव किया जाता है, फिर भी हमें संतोष नहीं होता। हम जेल आकर ‘ए’ और ‘बी’ क्लास के लिए झगड़ते हैं। जेल आकर ही हम कौन सा बड़ा त्याग कर देते हैं? जेल में हमें कौन सा कष्ट रहता है? सिवा इसके कि हमारे माथे पर नेतृत्व का सील लग जाता है। हम बड़े अभिमान के साथ कहते हैं, यह हमारी चौथी जेल यात्रा है। यह हमारी पांचवी जेल यात्रा है। अपनी जेल यात्रा के किस्से बार-बार सुना-सुनाकर आत्म गौरव अनुभव करते हैं; तात्पर्य यह है कि हम जितने बार जेल जा चुके होते है, उतनी ही सीढ़ी हम देशभक्ति और त्याग से दूसरों से ऊपर उठ जाते हैं। इसके बल पर जेल से छूटने के बाद, कोग्रेस को राजकीय सत्ता मिलते ही हम मिनिस्टर, स्थानीय संस्थाओं के मेंबर और क्या-क्या हो जाते हैं।

अनीता सोच रही थी, कल तक तो खद्दर भी नहीं पहनते थे, बात-बात पर काँग्रेस का मजाक उड़ाते थे, काँग्रेस के हाथों में थोड़ी शक्ति आते ही वे काँग्रेस भक्त बन गए। खद्दर पहनने लगे, यहाँ तक कि जेल में भी दिखाई पड़ने लगे। वास्तव में यह देश भक्ति है या सत्ताभक्ति! अनीता की आत्मा बोल उठी वास्तव में सच्ची देश भक्ति तो इन गरीबों के कष्ट निवारण में है। ये कोई दूसरे नहीं हैं, हमारी ही भारत माता की संतानें है। इन हजारों लाखों भूखे-नंगे भाई-बहनों की यदि हम कुछ भी सेवा कर सके तो सचमुच हमने अपने देश की सेवा की है। हमारा वास्तविक जीवन तो देहातों में ही है। किसानों की दुर्दशा से हम सभी थोड़े-बहुत परिचित हैं, पर इन गरीबों के पास न घर है न द्वार। अशिक्षा और अज्ञानता का इतना पर्दा इनकी आँखों पर है कि होश सँभालते ही माता पुत्री को और सास बहू को चोरी की शिक्षा देती है। और उनका यह विश्वास है कि चोरी करना और भीख मांगना ही उनका काम है। इससे अच्छा जीवन विताने की वह कल्पना ही नहीं कर सकते। आज यहाँ डेरा डाले तो कल कहीं और चोरी की। बचे तो बचे, नहीं तो फिर दो साल के लिए जेल। क्या मानव जीवन का यही लक्ष्य है? लक्ष्य है भी अथवा नहीं? यदि नहीं है तो विचारादर्श की उच्च सतह पर टिके हुए हमारे जन-नायकों और युग-पुरुषों की हमें क्या आवश्यकता? इतिहास धर्म-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान का कोई अर्थ नहीं होता? पर जीवन का लक्ष्य है, अवश्य है। संसार की मृग मरीचिका में हम लक्ष्य को भूल जाते हैं। सतह के ऊपर तक पहुँच पानेवाली कुछेक महान आत्माओं को छोड़कर सारा जन-समुदाय संसार में अपने को खोया हुआ पाता है, कर्तव्याकर्तव्य का उसे ध्यान नहीं, सत्यासत्य की समझ नहीं, अन्यथा मानवीयता से बढ़कर कौन-सा मानव धर्म है? पतित मानवता को जीवन-दान देने की अपेक्षा भी कोई महतर पुण्य है? राही जैसी कोई भोली-भाली किन्तु गुमराह आत्माओं के कल्याण की साधना होनी चाहिये। सत्याग्रही की यही प्रथम प्रतिज्ञा क्यों न हो? देशभक्ति का यही मापदंड क्यों न बने? अनीता दिन भर इन्हीं विचारों में डूबी रही। शाम को वह इसी प्रकार कुछ सोचते-सोचते सो गई।

रात में उसने सपना देखा कि जेल से छुटकर वह इन्हीं माँगरोरी लोगों के गाँव में पहुँच गई है। वहाँ उसने एक छोटा सा आश्रम खोल दिया है। उसी आश्रम में एक तरफ छोटे-छोटे बच्चे पढ़ते हैं और स्त्रियाँ सूत काटती हैं। दूसरी तरफ मर्द कपड़ा बुनते हैं और रुई धुनते हैं। शाम को रोज उन्हें धार्मिक पुस्तक पढ़कर सुनाई जाती है और देश में कहाँ क्या हो रहा है, यह सब सरल भाषा में समझाया जाता है। वही भीख मांगने और चोरी करने वाले लोग अब आदर्श ग्रामवासी हो रहे हैं। रहने के लिए उन्होंने छोटे-छोटे अपना घर बना लिए हैं। राही के अनाथ बच्चों को अनीता अपने साथ रखने लगी है। अनीता यही सुख स्वप्न देख रही थी। सुबह सात बजे तक उसकी नींद नहीं खुली। अचानक एक स्त्री जेलर ने उसे आकर जगा दिया और बोली- आपके पिता बीमार हैं। आप बिना शर्त छोड़ी जा रही हैं। अनीता अपने स्वप्न को सच्चाई में परिवर्तित करने की एक मधुर कल्पना ले घर चली गई। इस कहानी के माध्यम से सुभद्रा कुमारी चौहान यह सन्देश देती हैं कि गरीबों के कल्याण के बिना सत्याग्रहियों का देशभक्ति सत्ताभक्ति ही कहालाएगी। वास्तव में सच्ची देश भक्ति तो गरीबों के कष्ट निवारण में है। गुमराह लोगों को सही रास्ते पर लाने का प्रयास है। मानवीयता ही हमारा सबसे बड़ा धर्म है।

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अपना-अपना भाग्य कहानी | जैनेंद्र कुमार | हिन्दी कहानी https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%85%e0%a4%aa%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%85%e0%a4%aa%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97%e0%a5%8d%e0%a4%af-%e0%a4%95%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%9c%e0%a5%88%e0%a4%a8/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%2585%25e0%25a4%25aa%25e0%25a4%25a8%25e0%25a4%25be-%25e0%25a4%2585%25e0%25a4%25aa%25e0%25a4%25a8%25e0%25a4%25be-%25e0%25a4%25ad%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%2597%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25af-%25e0%25a4%2595%25e0%25a4%25b9%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25a8%25e0%25a5%2580-%25e0%25a4%259c%25e0%25a5%2588%25e0%25a4%25a8 https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%85%e0%a4%aa%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%85%e0%a4%aa%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97%e0%a5%8d%e0%a4%af-%e0%a4%95%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%9c%e0%a5%88%e0%a4%a8/#respond Mon, 05 Jun 2023 18:54:52 +0000 https://hindisahityasangam.com/?p=697 अपना-अपना भाग्य कहानी जैनेंद्र कुमार   बहुत कुछ निरुदेश्य घूम चुकने पर हम सड़क के किनारे की एक बेंच पर बैठ गए। नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी। रूई के रेशे-से भाप से बादल हमारे सिरों को छू-छूकर बेरोक-टोक घूम रहे थे। हल्के-हल्के प्रकाश और अंधियारी से रंगकर कभी वे नाले दीखते, कभी सफ़ेद […]

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अपना-अपना भाग्य कहानी
जैनेंद्र कुमार

 

बहुत कुछ निरुदेश्य घूम चुकने पर हम सड़क के किनारे की एक बेंच पर बैठ गए। नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी। रूई के रेशे-से भाप से बादल हमारे सिरों को छू-छूकर बेरोक-टोक घूम रहे थे। हल्के-हल्के प्रकाश और अंधियारी से रंगकर कभी वे नाले दीखते, कभी सफ़ेद और फिर देर में अरुण पड़ जाते। वे जैसे हमारे साथ खेलना चाह रहे थे।

पीछे हमारे पोलो वाला मैदान फैला था। सामने अंग्रेज़ों का एक प्रमोदगृह था, जहां सुहावना, रसीला बाजा बज रहा था और पार्श्व में था वही सुरम्य अनुपम नैनीताल।

ताल में किश्तियां अपने सफ़ेद पाल उड़ाती हुई एक-दो अंग्रेज़ यात्रयों को लेकर इधर से उधर और उधर से इधर खेल रही थीं। कहीं कुछ अंग्रेज़ एक-एक सामने प्रतिस्थापित कर, अपनी सुई-सी शक्ल की डोंगियों को, मानो शर्त बांधकर सरपट दौड़ा रहे थे। कहीं किनारे पर कुछ साहब अपनी बंसी डाले, सधैर्य, एकाग्र, एकस्थ, एकनिष्ठ मछली-चिंतन कर रहे थे। पीछे पोलोलॉन में बच्चे किलकारियां मारते हुए हॉकी खेल रहे थे।

शोर, मार-पीट, गाली-गलौज भी जैसे खेल का ही अंश था। इस तमाम खेल को उतने क्षणों का उद्देश्य बना, वे बालक अपना सारा मन, समग्र बल और समूची विधा लगाकर मानो ख़त्म कर देना चाहते थे। उन्हें आगे की चिंता न थी। बीते का ख्याल न था। वे शुद्ध तत्काल के प्राणी थे। वे शब्द की संपूर्ण सच्चाई के साथ जीवित थे।

सड़क पर से नर-नारियों का अविरल प्रवाह आ रहा था और जा रहा था। उसका न ओर था, न छोर। यह प्रवाह कहां जा रहा था और कहां से आ रहा था, कौन बता सकता है? सब उम्र के, सब तरह के लोग उसमें थे। मानो मनुष्यता के नमूनों का बाज़ार सजकर सामने से इठलाता निकला चला जा रहा हो।

अधिकार-गर्व में तने अंग्रेज़ उसमें थे और चितड़ों से सजे घोड़ों की बाग थामे पहाड़ी उसमें थे, जिन्होंने अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को कुचलकर शून्य बना लिया है और जो बड़ी तत्परता से दुम हिलाना सीख गए हैं।

भागते, खेलते, हंसते, शरारत करते लाल-लाल अंग्रेज़ बच्चे थे और पीली-पीली आंखें फाड़े, पिता की उंगली पकड़कर चलते हुए अपने हिंदुस्तानी नौनिहाल भी थे। अंग्रेज़ पिता थे, जो अपने बच्चों के साथ भाग रहे थे, हंस रहे थे और खेल रहे थे। उधर भारतीय पितृदेव भी थे, जो बुज़ुर्गी को अपने चारों तरफ़ लपेटे धन-संपन्नता के लक्षणों का प्रदर्शन करते हुए चल रहे थे।

अंग्रेज़ रमणिनयां थीं, जो धीरे-धीरे नहीं चलती थीं, तेज़ चलती थीं। उन्हें न चलने में थकावट आती थी, न हंसने में मौत आती थी। कसरत के नाम पर घोड़े पर भी बैठ सकती थीं और घोड़े के साथ ही साथ, ज़रा भी होते ही किसी-किसी हिंदुस्तानी पर कोड़े भी फटकार सकती थीं। वे दो-दो, तीन-तीन, चीर-चार की टोलियों में, निशंक, निरापद इस प्रवाह में मानो अपने स्थान को जानती हुई, सड़क पर चली जा रही थीं।

उधर हमारी भारत की कुललक्ष्मी, सड़क के बिल्कुल किनारे दामन बचाती, साड़ी की कई तहों में सिमट-सिमटकर लोक-लाज, स्त्रीत्व और भारतीय गरिमा के आदर्श को अपने परिवेष्टनों में छिपाकर सहमी-सहमी धरती में आंखें गाड़े, क़दम-क़दम बढ़ा रही थीं।

इसके साथ ही भारतीयता का एक और नमूना था। अपने कालेपन को खुरच-खुरचकर बहा देने की इच्छा करनेवाला अंग्रेज़ीदां पुरुषोत्तम भी थे, जो नेटिवों देखकर मुंह फेर लेते थे और अंग्रेज़ को देखकर आंखें बिछा देते थे और दुम हिलाने लगते थे। वैसे वे अकड़कर चलते थे- मानो भारतभूमि को इसी अकड़ के साथ कुचल-कुचलकर चलने का उन्हें अधिकार मिला है।

घंटे के घंटे सड़क गए। अंधकार गाढ़ा हो गया। बादल सफ़ेद हो कर जम गए। मनुष्य का वह तांता एक-एक कर क्षीण हो गया। अब इक्का-दुक्का आदमी सड़क पर छतरी लगाकर निकल रहा था। हम वहीं के वहीं बैठे थे।

सर्दी-सी मालूम हुई। हमारे ओवरकोट भीग गए थे। पीछे फिरकर देखा। यह लाल बर्फ़ की चादर की तरह बिल्कुल स्तब्ध और सुन्न पड़ा था।

सब सन्नाटा था। तल्लीलाल की बिजली की रोशनियां दीप-मालिका-सी जगमगा रही थी। वह जगमगाहट दो मील तक फैले हुए प्रकृति के जल-दर्पण पर प्रतिबिंबित हो रही थी और दर्पण का कांपता हुआ, लहरे लेता हुआ, वह जल-प्रतिबिंबों को सौगुना, हज़ारगुना करके, उनके प्रकाश को मानो एकत्र और पूंजीभूत करके व्याप्त कर रहा था। पहाड़ों के सिर पर की रोशनाइयां तारों-सी जान पड़ती थीं।

हमारे देखते-देखते एक घने पर्दे ने आकर इन सब को ढक दिया। रोशनियां मानो मर गईं। जगमगाहट लुप्त हो गई। वे काले-काले भूत-से पहाड़ भी इस सफ़ेद पर्दे के पीछे छिप गए। पास की वस्तु भी न दीखने लगी। मानो यह घनीभूत प्रलय था। सब कुछ इस घनी गहरी सफ़ेदी में दब गया। एक शुभ महासागर में फैलकर संस्कृति के सारे अस्तित्व को डुबो दिया। ऊपर-नीचे, चारों तरफ़ वह निर्भेद्य, सफ़ेद शून्यता ही फैली हुई थी।

ऐसा घना कुहरा हमने कभी न देखा था। वह टप-टप टपक रहा था। मार्ग बिल्कुल निर्जन-चुप था। वह प्रवाह न जाने किन घोसलों में जा छिपा था। उस वृहदाकार शुभ शून्य में कहीं से, ग्यारह बार टन-टन हो उठा। जैसे कहीं दूर क़ब्र में से आवाज़ आ रही हो। हम अपने-अपने होटलों के लिए चल दिए। रास्ते में दो मित्रों का होटल मिला। दोनों वकील मित्र छुट्टी लेकर चले गए। हम दोनों आगे बढ़े। हमारा होटल आगे था।

ताल के किनारे-किनारे हम चले जा रहे थे। हमारे ओवरकोट तर हो गए थे। बारिश नहीं मालूम होती थी, पर वहां तो ऊपर-नीचे हवा से कण-कण में बारिश थी। सर्दी इतनी थी कि सोचा. कोर्ट पर एक कंबल और होता तो अच्छा होता।

रास्ते में ताल के बिल्कुल किनारे पर एक बेंच पड़ी थी। मैं जी मैं बेचैन हो रहा था। झटपट होटल पहुंचकर इन भीगे कपड़ों से छुट्टी पा, गर्म बिस्तर में छिपकर सोना चाहता था, पर साथ के मित्रों की सनक कब उठेगी, कब थमेगी-इसका पता न था और वह कैसी, क्या होगी- इसका भी कुछ अंदाज़ न था। उन्होंने कहा, “आओ, ज़रा यहां बैठें।”

हम उस चूते कुहरे में रात के ठीक एक बजे तालाब के किनारे उस भीगी बर्फ़ की ठंडी हो रही लोहे की बेंच पर बैठ गए।

पांच, दस, पन्द्रह मिनट हो गए। मित्र के उठने का इरादा न मालूम हुआ। मैंने खिसियाकर कहा- “चलिए भी।”

“अरे, ज़रा बैठो भी।”

हाथ पकड़कर ज़रा बैठने के लिए जब इस ज़ोर से बैठा लिया गया तो और चारा न रहा- लाचार बैठे रहना पड़ा। सनक से छुटकारा आसान न था और यह ज़रा बैठना ज़रा न था, बहुत था।

चुपचाप बैठे तंग हो रहा था, कुढ़ रहा था कि मित्र अचानक बोले-

“देखो… वह क्या है?” मैंने देखा- कुहरे की सफ़ेदी में कुछ ही हाथ दूर से एक काली-सी सूरत हमारी तरफ़ बढ़ी आ रही थी। मैंने कहा- “होगा कोई।” तीन ग़ज़ की दूरी से दीख पड़ा, एक लड़का सिर के बड़े-बड़े बालों को खुजलाता चला आ रहा है। नंगे पैर है, नंगा सिर। एक मैली-सी कमीज लटकाए है। पैर उसके न जाने कहां पड़ रहे हैं और वह न जाने कहां जा रहा है- कहां जाना चाहता है। उसके क़दमों में जैसे कोई न अगला है, न पिछला है, न दायां है, न बायां है। पास ही चुंगी की लालटेन के छोटे-से प्रकाश वृत्त में देखा- कोई दस बरस का होगा। गोरे रंग का है, पर मेल से काला पड़ गया है। आंखें अच्छी बड़ी, पर रूखी है। माथा जैसे अभी से झुर्रियां खा गया है। वह हमें न देख पाया। वह जैसे कुछ भी नहीं देख रहा था। न नीचे की धरती, न ऊपर चारों तरफ़ फैला हुआ कुहरा, न सामने का तालाब और न बाक़ी दुनिया। वह बस अपने विकट वर्तमान को देख रहा था।

मित्र ने आवाज दी, “है।”

उसने जैसे जागकर देखा और पास आ गया।

“तू कहाँ जा रहा है?”

उसने अपनी सूनी आंखें फाड़ दीं।

“दुनिया सो गई, तू ही क्यों घूम रहा है?” बालक मौन-मूक, फिर भी बोलता हुआ चेहरा लेकर खड़ा रहा।

“कहां सोएगा?”

“यहीं कहीं।”

“कल कहां सोया था?”

“दुकान पर।” “आज वहां क्यों नहीं?”

“नौकरी से हटा दिया गया।”

“क्या नौकरी थी?”

“सब काम। एक रुपया और जूठा खाना!”

“फिर नौकरी करेगा?”

“हाँ।”

“बाहर चलेगा?”

“हाँ।”

“आज क्या खाना खाया?”

“कुछ नहीं।”

“अब खाना मिलेगा?”

“नहीं मिलेगा!”

“यूं ही सो जाएगा?”

“हां।”

“कहां?”

“यहीं’ कहीं।”

“इन्हीं कपड़ों में।”

बालक फिर आंखों से बोलकर मूक खड़ा रहा। आंखें मानो बोलती थीं- यह भी कैसा मूर्ख प्रश्न!

“मां बाप है?”

“है।”

“कहाँ? “

“पन्द्रह कोस दूर गांव में।”

“तुम भाग आया? “

“हाँ।”

“क्यों?”

“मेरे कई छोटे भाई-बहिन हैं- सो भाग आया, वहां काम नहीं, रोटी नहीं। बाप भूखा रहता था और मारता था। मां भूखी रहती थी और रोती थी। सो भाग आया। एक साथी और था। उसी गांव का। मुझसे बड़ा था। दोनों साथ यहां आए। वह अब नहीं है।”

“कहाँ गया?”

“मर गया।”

“मर गया”

“मर गया?”

“मर गया?”

“हाँ, साहब ने मारा, मर गया।”

“अच्छा, हमारे साथ चल।”

वह साथ चल दिया। लौटकर हम वकील दोस्तों के होटल में पहुंचे।

“वकील साहब! “वकील लोग होटल के ऊपर के कमरे से उतर कर आए। कश्मीरी दोशाला लपेटे थे, मोजे-चढ़े पैरों में चप्पल थी। स्वर में हल्की-सी झुंझलाहट थी, कुछ लापरवाही थी।

“आ-हा फिर आप! कहिए।”

“आप को नौकर की ज़रूरत थी न? देखिए, यह लड़का है।”

“कहां से ले आए? इसे आप जानते हैं?”

“जानता हूं- वह बेईमान नहीं हो सकता।”

“अजी, ये पहाड़ी बड़े शैतान होते हैं। बच्चे-बच्चे में गुल छिपे रहते हैं। आप भी क्या अजीब हैं। उठा लाए कहीं से- लो जी, यह नौकर लो।”

“मानिए तो, यह लड़का अच्छा निकलेगा।”

“आप भी… जी, बस ख़ूब हैं। ऐरे-ग़ैरे को नौकर बना लिया जाए, अगले दिन वह न जाने क्या-क्या लेकर चंपत हो जाए।”

“आप मानते ही नहीं, मैं क्या करूं?”

“माने क्या ख़ाक? आप भी… जी, अच्छा मज़ाक़ करते हैं।… अच्छा, अब हम सोने जाते हैं।” और वह रुपये रोज़ के किराए वाले कमरे में सजी मसहरी पर सोने झटपट चले गए।

वकील साहब के चले जाने पर, होटल के बाहर आकर मित्र ने अपनी जेब में हाथ डालकर कुछ टटोला, पर झट कुछ निराश भाव से हाथ बाहर कर मेरी ओर देखने लगे।

“क्या है?”

“इसे खाने के लिए कुछ देना चाहता था।” अंग्रेज़ी में मित्र ने कुछ कहा, “मगर दस-दस के नोट हैं।” “नोट ही शायद मेरे पास हैं, देखूं।”

सचमुच मेरे पास पॉकिट में भी नोट ही थे। हम फिर अंग्रेज़ी में बोलने लगे। लड़के के दांत बीच-बीच में कटकटा उठते थे। कड़ाके की सर्दी थी।

मित्र ने पूछा, “तब?”

मैंने कहा, “दस का नोट ही दे दो।” सकपकाकर मित्र मेरा मुंह देखने लगे, “अरे यार! बजट बिगड़ जाएगा। ह्रदय में जितनी दया है, पास में उतने पैसे तो नहीं हैं।”

“तो जाने दो, यह दया ही इस ज़माने में बहुत है।” मैंने कहा। मित्र चुप रहे। फिर लड़के से बोले, “अब आज तो कुछ नहीं हो सकता। कल मिलना। वह होटल डी पब जानता है? वहीं कल दस बजे मिलेगा’।”

“हां, कुछ काम देंगे हुज़ूर।”

“हां, हां, ढूंढ दूंगा।”

“तो जाऊं?”

“हां”, ठंडी सांस खींचकर मित्र ने कहा, “कहां सोएगा?”

“यहीं कहीं बेंच पर, पेड़ के नीचे किसी दुकान की भट्टी में।”

बालक फिर उसी प्रेत-गति से एक और बढ़ा और कुहरे में मिल गया। हम भी होटल की ओर बढ़े। हवा तीखी थी। हमारे कोटों को पार कर बदन में तीर-सी लगती थी।

सिकुड़ते हुए मित्र ने कहा, “भयानक शीत है। उसके पास बहुत कम कपड़े…।”

“यह संसार है यार!” मैंने स्वार्थ की फिलासफ़ी सुनाई, “चलो, पहले बिस्तर में गर्म हो लो, फिर और की चिंता करना।”

उदास होकर मित्र ने कहा, “स्वार्थ! जो कहो, लाचारी कहो, निष्ठुरता कहो या बेहयाई!”

दूसरे दिन नैनीताल- स्वर्ग के किसी काले ग़ुलाम पशु के दुलारे का वह बेटा- वह बालक, निश्चित समय हमारे होटल ‘डी पब’ नहीं आया। हम अपनी नैनीताल की सैर ख़ुशी-ख़ुशी ख़त्म कर चलने को हुए। उस लड़के की आस लगाते बैठे रहने की ज़रूरत हमने न समझी।

मोटर में सवार होते ही थे कि यह समाचार मिला कि पिछली रात, एक पहाड़ी बालक सड़क के किनारे पेड़ के नीचे, ठिठुरकर मर गया!

मरने के लिए उसे वही जगह, वही दस बरस की उम्र और वही काले चित्रों की कमीज मिली। आदमियों की दुनिया ने बस यही उपहार उसके पास छोड़ा था।

पर बताने वालों ने बताया कि ग़रीब के मुंह पर, छाती, मुट्ठी और पैरों पर बर्फ़ की हल्की-सी चादर चिपक गई थी। मानो दुनिया की बेहयाई ढकने के लिए प्रकृति ने शव के लिए सफ़ेद और ठंडे कफ़न का प्रबंध कर दिया था।

सब सुना और सोचा, अपना-अपना भाग्य।

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दुनिया का सबसे अनमोल रत्न | प्रेमचंद | हिन्दी कहानी https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%a6%e0%a5%81%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a4%ac%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%85%e0%a4%a8%e0%a4%ae%e0%a5%8b%e0%a4%b2-%e0%a4%b0%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%a8/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%25a6%25e0%25a5%2581%25e0%25a4%25a8%25e0%25a4%25bf%25e0%25a4%25af%25e0%25a4%25be-%25e0%25a4%2595%25e0%25a4%25be-%25e0%25a4%25b8%25e0%25a4%25ac%25e0%25a4%25b8%25e0%25a5%2587-%25e0%25a4%2585%25e0%25a4%25a8%25e0%25a4%25ae%25e0%25a5%258b%25e0%25a4%25b2-%25e0%25a4%25b0%25e0%25a4%25a4%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25a8 https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%a6%e0%a5%81%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a4%ac%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%85%e0%a4%a8%e0%a4%ae%e0%a5%8b%e0%a4%b2-%e0%a4%b0%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%a8/#respond Mon, 05 Jun 2023 18:51:46 +0000 https://hindisahityasangam.com/?p=694 दुनिया का सबसे अनमोल रत्न प्रेमचंद   दिलफ़िगार एक कँटीले पेड़ के नीचे दामन चाक किये बैठा हुआ खून के आँसू बहा रहा था। वह सौन्दर्य की देवी यानी मलका दिलफ़रेब का सच्चा और जान देने वाला प्रेमी था। उन प्रेमियों में नहीं, जो इत्र-फुलेल में बसकर और शानदार कपड़ों से सजकर आशिक के वेश […]

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दुनिया का सबसे अनमोल रत्न
प्रेमचंद

 

दिलफ़िगार एक कँटीले पेड़ के नीचे दामन चाक किये बैठा हुआ खून के आँसू बहा रहा था। वह सौन्दर्य की देवी यानी मलका दिलफ़रेब का सच्चा और जान देने वाला प्रेमी था। उन प्रेमियों में नहीं, जो इत्र-फुलेल में बसकर और शानदार कपड़ों से सजकर आशिक के वेश में माशूक़ियत का दम भरते हैं। बल्कि उन सीधे-सादे भोले-भाले फ़िदाइयों में जो जंगल और पहाड़ों से सर टकराते हैं और फ़रियाद मचाते फिरते हैं। दिलफ़रेब ने उससे कहा था कि अगर तू मेरा सच्चा प्रेमी है, तो जा और दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ लेकर मेरे दरबार में आ तब मैं तुझे अपनी गुलामी में क़बूल करूँगी। अगर तुझे वह चीज़ न मिले तो ख़बरदार इधर रुख़ न करना, वर्ना सूली पर खिंचवा दूँगी। दिलफ़िगार को अपनी भावनाओं के प्रदर्शन का, शिकवे-शिकायत का, प्रेमिका के सौन्दर्य-दर्शन का तनिक भी अवसर न दिया गया। दिलफ़रेब ने ज्यों ही यह फ़ैसला सुनाया, उसके चोबदारों ने ग़रीब दिलफ़िगार को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। और आज तीन दिन से यह आफ़त का मारा आदमी उसी कँटीले पेड़ के नीचे उसी भयानक मैदान में बैठा हुआ सोच रहा है कि क्या करूँ। दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ मुझको मिलेगी? नामुमकिन! और वह है क्या? क़ारूँ का ख़जाना? आबे हयात? खुसरो का ताज? जामे-जम? तख्तेताऊस? परवेज़ की दौलत? नहीं, यह चीज़ें हरगिज़ नहीं। दुनिया में ज़रूर इनसे भी महँगी, इनसे भी अनमोल चीज़ें मौजूद हैं मगर वह क्या हैं। कहाँ हैं? कैसे मिलेंगी? या खुदा, मेरी मुश्किल क्योंकर आसान होगी?

दिलफ़िगार इन्हीं ख़यालों में चक्कर खा रहा था और अक़्ल कुछ काम न करती थी। मुनीर शामी को हातिम-सा मददगार मिल गया। ऐ काश कोई मेरा भी मददगार हो जाता, ऐ काश मुझे भी उस चीज़ का जो दुनिया की सबसे बेशक़ीमत चीज़ है, नाम बतला दिया जाता! बला से वह चीज़ हाथ न आती मगर मुझे इतना तो मालूम हो जाता कि वह किस क़िस्म की चीज़ है। मैं घड़े बराबर मोती की खोज में जा सकता हूँ। मैं समुन्दर का गीत, पत्थर का दिल, मौत की आवाज़ और इनसे भी ज्यादा बेनिशान चीज़ों की तलाश में कमर कस सकता हूँ। मगर दुनिया की सबसे अनमोल चीज़! यह मेरी कल्पना की उड़ान से बहुत ऊपर है।

आसमान पर तारे निकल आये थे। दिलफ़िगार यकायक खुदा का नाम लेकर उठा और एक तरफ को चल खड़ा हुआ। भूखा-प्यासा, नंगे बदन, थकन से चूर, वह बरसों वीरानों और आबादियों की ख़ाक छानता फिरा, तलवे काँटों से छलनी हो गये, शरीर में हड्डियाँ ही हड्डियाँ दिखायी देने लगीं मगर वह चीज़ जो दुनिया की सबसे बेश-क़ीमत चीज़ थी, न मिली और न उसका कुछ निशान मिला।

एक रोज़ वह भूलता-भटकता एक मैदान में जा निकला, जहाँ हजारों आदमी गोल बाँधे खड़े थे। बीच में कई अमामे और चोग़े वाले दढिय़ल क़ाजी अफ़सरी शान से बैठे हुए आपस में कुछ सलाह-मशविरा कर रहे थे और इस जमात से ज़रा दूर पर एक सूली खड़ी थी। दिलफ़िगार कुछ तो कमजोरी की वजह से कुछ यहाँ की कैफियत देखने के इरादे से ठिठक गया। क्या देखता है, कि कई लोग नंगी तलवारें लिये, एक क़ैदी को जिसके हाथ-पैर में ज़ंजीरें थीं, पकड़े चले आ रहे हैं। सूली के पास पहुँचकर सब सिपाही रुक गये और क़ैदी की हथकडिय़ाँ, बेडिय़ाँ सब उतार ली गयीं। इस अभागे आदमी का दामन सैकड़ों बेगुनाहों के खून के छींटों से रंगीन था, और उसका दिल नेकी के ख़याल और रहम की आवाज़ से ज़रा भी परिचित न था। उसे काला चोर कहते थे। सिपाहियों ने उसे सूली के तख़्ते पर खड़ा कर दिया, मौत की फाँसी उसकी गर्दन में डाल दी और जल्लादों ने तख़्ता खींचने का इरादा किया कि वह अभागा मुजरिम चीख़कर बोला-खुदा के वास्ते मुझे एक पल के लिए फाँसी से उतार दो ताकि अपने दिल की आख़िरी आरजू निकाल लूँ। यह सुनते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया। लोग अचम्भे में आकर ताकने लगे। क़ाजियों ने एक मरने वाले आदमी की अंतिम याचना को रद्द करना उचित न समझा और बदनसीब पापी काला चोर ज़रा देर के लिए फाँसी से उतार लिया गया।

इसी भीड़ में एक खूबसूरत भोला-भोला लडक़ा एक छड़ी पर सवार होकर अपने पैरों पर उछल-उछल फ़र्जी घोड़ा दौड़ा रहा था, और अपनी सादगी की दुनिया में ऐसा मगन था कि जैसे वह इस वक्त सचमुच किसी अरबी घोड़े का शहसवार है। उसका चेहरा उस सच्ची खुशी से कमल की तरह खिला हुआ था जो चन्द दिनों के लिए बचपन ही में हासिल होती है और जिसकी याद हमको मरते दम तक नहीं भूलती। उसका दिल अभी तक पाप की गर्द और धूल से अछूता था और मासूमियत उसे अपनी गोद में खिला रही थी।

बदनसीब काला चोर फाँसी से उतरा। हज़ारों आँखें उस पर गड़ी हुई थीं। वह उस लड़के के पास आया और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगा। उसे इस वक्त वह ज़माना याद आया जब वह खुद ऐसा ही भोला-भाला, ऐसा ही खुश-व-खुर्रम और दुनिया की गन्दगियों से ऐसा ही पाक साफ़ था। माँ गोदियों में खिलाती थी, बाप बलाएँ लेता था और सारा कुनबा जान न्योछावर करता था। आह! काले चोर के दिल पर इस वक़्त बीते हुए दिनों की याद का इतना असर हुआ कि उसकी आँखों से, जिन्होंने दम तोड़ती हुई लाशों को तड़पते देखा और न झपकीं, आँसू का एक क़तरा टपक पड़ा। दिलफ़िगार ने लपककर उस अनमोल मोती को हाथ में ले लिया और उसके दिल ने कहा-बेशक यह दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ है जिस पर तख़्ते ताऊस और जामेजम और आबे हयात और ज़रे परवेज़ सब न्योछावर हैं।

इस ख़याल से खुश होता कामयाबी की उम्मीद में सरमस्त, दिलफ़िगार अपनी माशूक़ा दिलफ़रेब के शहर मीनोसवाद को चला। मगर ज्यो-ज्यों मंजिलें तय होती जाती थीं उसका दिल बैठ जाता था कि कहीं उस चीज़ की, जिसे मैं दुनिया की सबसे बेशक़ीमत चीज़ समझता हूँ, दिलफ़रेब की आँखों में कद्र न हुई तो मैं फाँसी पर चढ़ा दिया जाऊँगा और इस दुनिया से नामुराद जाऊँगा। लेकिन जो हो सो हो, अब तो किस्मत-आज़माई है। आख़िरकार पहाड़ और दरिया तय करते शहर मीनोसवाद में आ पहुँचा और दिलफ़रेब की ड्योढ़ी पर जाकर विनती की कि थकान से टूटा हुआ दिलफ़िगार खुदा के फ़ज़ल से हुक्म की तामील करके आया है, और आपके क़दम चूमना चाहता है। दिलफ़रेब ने फ़ौरन अपने सामने बुला भेजा और एक सुनहरे परदे की ओट से फ़रमाइश की कि वह अनमोल चीज़ पेश करो। दिलफ़िगार ने आशा और भय की एक विचित्र मन:स्थिति में वह बूँद पेश की और उसकी सारी कैफ़ियत बहुत पुरअसर लफ्ज़ों में बयान की। दिलफ़रेब ने पूरी कहानी बहुत ग़ौर से सुनी और वह भेंट हाथ में लेकर ज़रा देर तक ग़ौर करने के बाद बोली-दिलफ़िगार, बेशक तूने दुनिया की एक बेशक़ीमत चीज़ ढूँढ़ निकाली, तेरी हिम्मत और तेरी सूझबूझ की दाद देती हूँ! मगर यह दुनिया की सबसे बेशक़ीमत चीज़ नहीं, इसलिए तू यहाँ से जा और फिर कोशिश कर, शायद अब की तेरे हाथ वह मोती लगे और तेरी क़िस्मत में मेरी गुलामी लिखी हो। जैसा कि मैंने पहले ही बतला दिया था मैं तुझे फाँसी पर चढ़वा सकती हूँ मगर मैं तेरी जाँबख्शी करती हूँ इसलिए कि तुझमें वह गुण मौजूद हैं, जो मैं अपने प्रेमी में देखना चाहती हूँ और मुझे यक़ीन है कि तू जरूर कभी-न-कभी कामयाब होगा।

नाकाम और नामुराद दिलफ़िगार इस माशूक़ाना इनायत से ज़रा दिलेर होकर बोला-ऐ दिल की रानी, बड़ी मुद्दत के बाद तेरी ड्योढ़ी पर सजदा करना नसीब होता है। फिर खुदा जाने ऐसे दिन कब आएँगे, क्या तू अपने जान देने वाले आशिक़ के बुरे हाल पर तरस न खाएगी और क्या अपने रूप की एक झलक दिखाकर इस जलते हुए दिलफ़िगार को आने वाली सख़्तियों के झेलने की ताक़त न देगी? तेरी एक मस्त निगाह के नशे से चूर होकर मैं वह कर सकता हूँ जो आज तक किसी से न बन पड़ा हो।

दिलफ़रेब आशिक़ की यह चाव-भरी बातें सुनकर गुस्सा हो गयी और हुक्म दिया कि इस दीवाने को खड़े-खड़े दरबार से निकाल दो। चोबदार ने फ़ौरन ग़रीब दिलफ़िगार को धक्के देकर यार के कूचे से बाहर निकाल दिया।

कुछ देर तक तो दिलफ़िगार अपनी निष्ठुर प्रेमिका की इस कठोरता पर आँसू बहाता रहा, और सोचने लगा कि कहाँ जाऊँ। मुद्दतों रास्ते नापने और जंगलों में भटकने के बाद आँसू की यह बूँद मिली थी, अब ऐसी कौन-सी चीज है जिसकी क़ीमत इस आबदार मोती से ज्यादा हो। हज़रते खिज्र! तुमने सिकन्दर को आबेहयात के कुएँ का रास्ता दिखाया था, क्या मेरी बाँह न पकड़ोगे? सिकन्दर सारी दुनिया का मालिक था। मैं तो एक बेघरबार मुसाफ़िर हूँ। तुमने कितनी ही डूबती किश्तियाँ किनारे लगायी हैं, मुझ ग़रीब का बेड़ा भी पार करो। ऐ आलीमुक़ाम जिबरील! कुछ तुम्ही इस नीमजान, दुखी आशिक़ पर तरस खाओ। तुम खुदा के एक ख़ास दरबारी हो, क्या मेरी मुश्किल आसान न करोगे! ग़रज़ यह कि दिलफ़िगार ने बहुत फ़रियाद मचायी मगर उसका हाथ पकडऩे के लिए कोई सामने न आया। आख़िर निराश होकर वह पागलों की तरह दुबारा एक तरफ़ को चल खड़ा हुआ।

दिलफ़िगार ने पूरब से पच्छिम तक और उत्तर से दक्खिन तक कितने ही जंगलों और वीरानों की ख़ाक छानी, कभी बर्फ़िस्तानी चोटियों पर सोया, कभी डरावनी घाटियों में भटकता फिरा मगर जिस चीज़ की धुन थी वह न मिली, यहाँ तक कि उसका शरीर हड्डियों का एक ढाँचा रह गया।

एक रोज वह शाम के वक्त किसी नदी के किनारे खस्ताहाल पड़ा हुआ था। बेखुदी के नशे से चौंका तो क्या देखता है कि चन्दन की एक चिता बनी हुई है और उस पर एक युवती सुहाग के जोड़े पहने सोलहों सिंगार किये बैठी हुई है। उसकी जाँघ पर उसके प्यारे पति का सर है। हज़ारों आदमी गोल बाँधे खड़े हैं और फूलों की बरखा कर रहे हैं। यकायक चिता में से खुद-ब-खुद एक लपट उठी। सती का चेहरा उस वक्त एक पवित्र भाव से आलोकित हो रहा था। चिता की पवित्र लपटें उसके गले से लिपट गयीं और दम-के-दम में वह फूल-सा शरीर राख का ढेर हो गया। प्रेमिका ने अपने को प्रेमी पर न्योछावर कर दिया और दो प्रेमियों के सच्चे, पवित्र, अमर प्रेम की अन्तिम लीला आँख से ओझल हो गयी। जब सब लोग अपने घरों को लौटे तो दिलफ़िगार चुपके से उठा और अपने चाक-दामन कुरते में यह राख का ढेर समेट लिया और इस मुट्ठी भर राख को दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ समझता हुआ, सफलता के नशे में चूर, यार के कूचे की तरफ चला। अबकी ज्यों-ज्यों वह अपनी मंजिल के क़रीब आता था, उसकी हिम्मतें बढ़ती जाती थीं। कोई उसके दिल में बैठा हुआ कह रहा था-अबकी तेरी जीत है और इस ख़याल ने उसके दिल को जो-जो सपने दिखाए उनकी चर्चा व्यर्थ है। आख़िकार वह शहर मीनोसवाद में दाख़िल हुआ और दिलफ़रेब की ऊँची ड्योढ़ी पर जाकर ख़बर दी कि दिलफ़िगार सुर्ख़-रू होकर लौटा है और हुजूर के सामने आना चाहता है। दिलफ़रेब ने जाँबाज़ आशिक़ को फ़ौरन दरबार में बुलाया और उस चीज के लिए, जो दुनिया की सबसे बेशक़ीमत चीज़ थी, हाथ फैला दिया। दिलफ़िगार ने हिम्मत करके उसकी चाँदी जैसी कलाई को चूम लिया और मुठ्ठी भर राख को उसकी हथेली में रखकर सारी कैफ़ियत दिल को पिघला देने वाले लफ़्जों में कह सुनायी और सुन्दर प्रेमिका के होठों से अपनी क़िस्मत का मुबारक फ़ैसला सुनने के लिए इन्तज़ार करने लगा। दिलफ़रेब ने उस मुठ्ठी भर राख को आँखों से लगा लिया और कुछ देर तक विचारों के सागर में डूबे रहने के बाद बोली-ऐ जान निछावर करने वाले आशिक़ दिलफ़िगार! बेशक यह राख जो तू लाया है, जिसमें लोहे को सोना कर देने की सिफ़त है, दुनिया की बहुत बेशक़ीमत चीज़ है और मैं सच्चे दिल से तेरी एहसानमन्द हूँ कि तूने ऐसी अनमोल भेंट मुझे दी। मगर दुनिया में इससे भी ज्यादा अनमोल कोई चीज़ है, जा उसे तलाश कर और तब मेरे पास आ। मैं तहेदिल से दुआ करती हूँ कि खुदा तुझे कामयाब करे। यह कहकर वह सुनहरे परदे से बाहर आयी और माशूक़ाना अदा से अपने रूप का जलवा दिखाकर फिर नजरों से ओझल हो गयी। एक बिजली थी कि कौंधी और फिर बादलों के परदे में छिप गयी। अभी दिलफ़िगार के होश-हवास ठिकाने पर न आने पाये थे कि चोबदार ने मुलायमियत से उसका हाथ पकडक़र यार के कूचे से उसको निकाल दिया और फिर तीसरी बार वह प्रेम का पुजारी निराशा के अथाह समुन्दर में गोता खाने लगा।

दिलफ़िगार का हियाव छूट गया। उसे यक़ीन हो गया कि मैं दुनिया में इसी तरह नाशाद और नामुराद मर जाने के लिए पैदा किया गया था और अब इसके सिवा और कोई चारा नहीं कि किसी पहाड़ पर चढक़र नीचे कूद पड़ूँ, ताकि माशूक़ के जुल्मों की फ़रियाद करने के लिए एक हड्डी भी बाक़ी न रहे। वह दीवाने की तरह उठा और गिरता-पड़ता एक गगनचुम्बी पहाड़ की चोटी पर जा पहुँचा। किसी और समय वह ऐसे ऊँचे पहाड़ पर चढऩे का साहस न कर सकता था मगर इस वक़्त जान देने के जोश में उसे वह पहाड़ एक मामूली टेकरी से ज्यादा ऊँचा न नजर आया। क़रीब था कि वह नीचे कूद पड़े कि हरे-हरे कपड़े पहने हुए और हरा अमामा बाँधे एक बुजुर्ग एक हाथ में तसबीह और दूसरे हाथ में लाठी लिये बरामद हुए और हिम्मत बढ़ाने वाले स्वर में बोले-दिलफ़िगार, नादान दिलफ़िगार, यह क्या बुज़दिलों जैसी हरकत है! तू मुहब्बत का दावा करता है और तुझे इतनी भी खबर नहीं कि मजबूत इरादा मुहब्बत के रास्ते की पहली मंज़िल है? मर्द बन और यों हिम्मत न हार। पूरब की तरफ़ एक देश है जिसका नाम हिन्दोस्तान है, वहाँ जा और तेरी आरजू पूरी होगी।

यह कहकर हज़रते ख़िज्र ग़ायब हो गये। दिलफ़िगार ने शुक्रिये की नमाज अदा की और ताज़ा हौसले, ताज़ा जोश और अलौकिक सहायता का सहारा पाकर खुश-खुश पहाड़ से उतरा और हिन्दोस्तान की तरफ चल पड़ा।

मुद्दतों तक काँटों से भरे हुए जंगलों, आग बरसाने वाले रेगिस्तानों, कठिन घाटियों और अलंघ्य पर्वतों को तय करने के बाद दिलफ़िगार हिन्द की पाक सरज़मीन में दाखिल हुआ और एक ठण्डे पानी के सोते में सफ़र की तकलीफें धोकर थकान के मारे नदी के किनारे लेट गया। शाम होते-होते वह एक चटियल मैदान में पहुँचा जहाँ बेशुमार अधमरी और बेजान लाशें बिना कफ़न के पड़ी हुई थीं। चील-कौए और वहशी दरिन्दे मरे पड़े हुए थे और सारा मैदान खून से लाल हो रहा था। यह डरावना दृश्य देखते ही दिलफ़िगार का जी दहल गया। या खुदा, किस मुसीबत में जान फँसी, मरने वालों का कराहना, सिसकना और एडिय़ाँ रगडक़र जान देना, दरिन्दों का हड्डियों को नोचना और गोश्त के लोथड़ों को लेकर भागना, ऐसा हौलनाक सीन दिलफ़िगार ने कभी न देखा था। यकायक उसे ख्याल आया, यह लड़ाई का मैदान है और यह लाशें सूरमा सिपाहियों की हैं। इतने में क़रीब से कराहने की आवाज़ आयी। दिलफ़िगार उस तरफ़ फिरा तो देखा कि एक लम्बा-तड़ंगा आदमी, जिसका मर्दाना चेहरा जान निकालने की कमज़ोरी से पीला हो गया है, ज़मीन पर सर झुकाये पड़ा हुआ है। सीने से खून का फौव्वारा जारी है, मगर आबदार तलवार की मूठ पंजे से अलग नहीं हुई। दिलफ़िगार ने एक चीथड़ा लेकर घाव के मुँह पर रख दिया ताकि खून रुक जाए और बोला-ऐ जवाँमर्द, तू कौन है? जवाँमर्द ने यह सुनकर आँखें खोलीं और वीरों की तरह बोला-क्या तू नहीं जानता मैं कौन हूँ, क्या तूने आज इस तलवार की काट नहीं देखी? मैं अपनी माँ का बेटा और भारत का सपूत हूँ। यह कहते-कहते उसकी त्योरियों पर बल पड़ गये। पीला चेहरा गुस्से से लाल हो गया और आबदार शमशीर फिर अपना जौहर दिखाने के लिए चमक उठी। दिलफ़िगार समझ गया कि यह इस वक्त मुझे दुश्मन समझ रहा है, नरमी से बोला-ऐ जवाँमर्द, मैं तेरा दुश्मन नहीं हूँ। अपने वतन से निकला हुआ एक ग़रीब मुसाफ़िर हूँ। इधर भूलता-भटकता आ निकला। बराय मेहरबानी मुझसे यहाँ की कुल कैफ़ियत बयान कर।

यह सुनते ही घायल सिपाही बहुत मीठे स्वर में बोला-अगर तू मुसाफ़िर है तो आ मेरे खून से तर पहलू में बैठ जा क्योंकि यही दो अंगुल ज़मीन है जो मेरे पास बाक़ी रह गयी है और जो सिवाय मौत के कोई नहीं छीन सकता। अफ़सोस है कि तू यहाँ ऐसे वक़्त में आया जब हम तेरा आतिथ्य-सत्कार करने के योग्य नहीं। हमारे बाप-दादा का देश आज हमारे हाथ से निकल गया और इस वक्त हम बेवतन हैं। मगर (पहलू बदलकर) हमने हमलावर दुश्मन को बता दिया कि राजपूत अपने देश के लिए कैसी बहादुरी से जान देता है। यह आस-पास जो लाशें तू देख रहा है, यह उन लोगों की है, जो इस तलवार के घाट उतरे हैं। (मुस्कराकर) और गोया कि मैं बेवतन हूँ, मगर ग़नीमत है कि दुश्मन की ज़मीन पर मर रहा हूँ। (सीने के घाव से चीथड़ा निकालकर) क्या तूने यह मरहम रख दिया? खून निकलने दे, इसे रोकने से क्या फ़ायदा? क्या मैं अपने ही देश में गुलामी करने के लिए ज़िन्दा रहूँ? नहीं, ऐसी ज़िन्दगी से मर जाना अच्छा। इससे अच्छी मौत मुमकिन नहीं।

जवाँमर्द की आवाज़ मद्धिम हो गयी, अंग ढीले पड़ गये, खून इतना ज्यादा बहा कि खुद-ब-खुद बन्द हो गया, रह-रहकर एकाध बूँद टपक पड़ता था। आख़िरकार सारा शरीर बेदम हो गया, दिल की हरकत बन्द हो गयी और आँखें मुँद गयीं। दिलफ़िगार ने समझा अब काम तमाम हो गया कि मरने वाले ने धीमे से कहा-भारतमाता की जय! और उसके सीने से खून का आख़िरी क़तरा निकल पड़ा। एक सच्चे देशप्रेमी और देशभक्त ने देशभक्ति का हक़ अदा कर दिया। दिलफ़िगार पर इस दृश्य का बहुत गहरा असर पड़ा और उसके दिल ने कहा, बेशक दुनिया में खून के इस क़तरे से ज़्यादा अनमोल चीज कोई नहीं हो सकती। उसने फ़ौरन उस खून की बूँद को जिसके आगे यमन का लाल भी हेच है, हाथ में ले लिया और इस दिलेर राजपूत की बहादुरी पर हैरत करता हुआ अपने वतन की तरफ़ रवाना हुआ और सख्तियाँ झेलता आख़िरकार बहुत दिनों के बाद रूप की रानी मलका दिलफ़रेब की ड्योढ़ी पर जा पहुँचा और पैग़ाम दिया कि दिलफ़िगार सुर्ख़रू और कामयाब होकर लौटा है और दरबार में हाज़िर होना चाहता है। दिलफ़रेब ने उसे फ़ौरन हाज़िर होने का हुक्म दिया। खुद हस्बे मामूल सुनहरे परदे की ओट में बैठी और बोली-दिलफ़िगार, अबकी तू बहुत दिनों के बाद वापस आया है। ला, दुनिया की सबसे बेशक़ीमत चीज कहाँ है?

दिलफ़िगार ने मेंहदी-रची हथेलियों को चूमते हुए खून का वह कतरा उस पर रख दिया और उसकी पूरी कैफ़ियत पुरजोश लहजे में कह सुनायी। वह खामोश भी न होने पाया था कि यकायक वह सुनहरा परदा हट गया और दिलफ़िगार के सामने हुस्न का एक दरबार सजा हुआ नज़र आया जिसकी एक-एक नाज़नीन जुलेखा से बढक़र थी। दिलफ़रेब बड़ी शान के साथ सुनहरी मसनद पर सुशोभित हो रही थी। दिलफ़िगार हुस्न का यह तिलस्म देखकर अचम्भे में पड़ गया और चित्रलिखित-सा खड़ा रहा कि दिलफ़रेब मसनद से उठी और कई क़दम आगे बढक़र उससे लिपट गयी। गानेवालियों ने खुशी के गाने शुरू किये, दरबारियों ने दिलफ़िगार को नज़रें भेंट कीं और चाँद-सूरज को बड़ी इज्जत के साथ मसनद पर बैठा दिया। जब वह लुभावना गीत बन्द हुआ तो दिलफ़रेब खड़ी हो गयी और हाथ जोडक़र दिलफ़िगार से बोली-ऐ जाँनिसार आशिक़ दिलफ़िगार! मेरी दुआएँ बर आयीं और खुदा ने मेरी सुन ली और तुझे कामयाब व सुर्ख़रू किया। आज से तू मेरा मालिक है और मैं तेरी लौंडी!

यह कहकर उसने एक रत्नजटित मंजूषा मँगायी और उसमें से एक तख्ती निकाली जिस पर सुनहरे अक्षरों में लिखा हुआ था-

‘खून का वह आख़िरी क़तरा जो वतन की हिफ़ाजत में गिरे दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ है।’

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ईदगाह | प्रेमचंद  | हिन्दी कहानी https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%88%e0%a4%a6%e0%a4%97%e0%a4%be%e0%a4%b9-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%ae%e0%a4%9a%e0%a4%82%e0%a4%a6-%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%95/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%2588%25e0%25a4%25a6%25e0%25a4%2597%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25b9-%25e0%25a4%25aa%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25b0%25e0%25a5%2587%25e0%25a4%25ae%25e0%25a4%259a%25e0%25a4%2582%25e0%25a4%25a6-%25e0%25a4%25b9%25e0%25a4%25bf%25e0%25a4%25a8%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25a6%25e0%25a5%2580-%25e0%25a4%2595 https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%88%e0%a4%a6%e0%a4%97%e0%a4%be%e0%a4%b9-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%ae%e0%a4%9a%e0%a4%82%e0%a4%a6-%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%95/#respond Mon, 05 Jun 2023 18:50:09 +0000 https://hindisahityasangam.com/?p=691 ईदगाह प्रेमचंद   रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने […]

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ईदगाह
प्रेमचंद

 

रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जायगी। तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लौटना असम्भव है।

लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गयी। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी की चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयाँ खायेंगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चौधरी आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाय। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लायेंगें- खिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या। और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पाँच साल का गरीब- सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गयी। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गयी। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियाँ लेकर आयेंगे। अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गयी हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती है। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियामतें लेकर आयेंगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे। अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दल-बल लेकर आये, हामिद की आनंद-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी।

हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है- तुम डरना नहीं अम्माँ, मैं सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।

अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे कैसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाय तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जायेंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहाँ सेवैयाँ कौन पकायेगा? पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे। माँगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ आने पैसे मिले थे। उस अठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गयी तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं है, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पाँच अमीना के बटवे में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्लाह ही बेड़ा पार लगावे। धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आयेंगी। सभी को सेवैयाँ चाहिए और थोड़ा किसी को आँखों नहीं लगता। किस-किस सें मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों चुराये? साल भर का त्यौहार है। ज़िंदगी ख़ैरियत से रहे, उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है। बच्चे को खुदा सलामत रखे, यें दिन भी कट जायँगे।

गाँव से मेला चला। और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतज़ार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ो में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशान लगाता है। माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फर्लांग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को कैसा उल्लू बनाया है।

बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब- घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ने जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे ओर क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहाँ मुर्दो की खोपड़ियाँ दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे होते हैं, पर किसी को अंदर नहीं जाने देते। और वहाँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हैं, मूँछो दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्माँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सकें। घुमाते ही लुढ़क जायँ।

महमूद ने कहा- हमारी अम्मीजान का तो हाथ काँपने लगे, अल्ला कसम।

मोहसिन बोला- चलो, मनों आटा पीस डालती हैं। ज़रा-सा बैट पकड़ लेंगी, तो हाथ काँपने लगेंगे! सैकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पाँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो आँखों तले अँधेरा आ जाय।

महमूद- लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।

मोहसिन- हाँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गयी थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्माँ इतना तेज दौड़ीं कि मैं उन्हें न पा सका, सच।
आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुईं। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता है? देखो न, एक-एक दूकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी हर दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रूपये।

हामिद को यकीन न आया- ऐसे रूपये जिन्नात को कहाँ से मिल जायेंगे?

मोहसिन ने कहा- जिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में चाहैं चले जायँ। लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गये, उसे टोकरों जवाहरात दे दिये। अभी यहीं बैठे हैं, पाँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जायँ।

हामिद ने फिर पूछा- जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?

मोहसिन- एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाय तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाय।

हामिद- लोग उन्हें कैसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिन्न को खुश कर लूँ।

मोहसिन- अब यह तो मै नहीं जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाय चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देंगे। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गये। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।

अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है।

आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जायँ। मोहसिन ने प्रतिवाद किया- यह कानिसटिबिल पहरा देते हैं? तभी तुम बहुत जानते हो अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हैं, सब इनसे मिले रहते हैं।रात को ये लोग चोरों से तो कहते हैं, चोरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जागते रहो!’ पुकारते हैं। तभी इन लोगों के पास इतने रूपये आते हैं। मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हैं। बीस रूपया महीना पाते हैं, लेकिन पचास रूपये घर भेजते हैं। अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहाँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे- बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले-हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लायें। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाय।

हामिद ने पूछा- यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं?

मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला- अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गयी। सारी लेई-पूँजी जल गयी। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोये, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिर न जाने कहाँ से एक सौ कर्ज लाये तो बरतन-भांडे आये।

हामिद-एक सौ तो पचास से ज्यादा होते हैं?
‘कहाँ पचास, कहाँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आऍं?

अब बस्ती घनी होने लगी। ईदगाह जानेवालों की टोलियाँ नजर आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-ताँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थीं। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से बार-बार हार्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।

सहसा ईदगाह नजर आयी। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम बिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गयी हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजम भी नहीं है। नये आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गये। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हैं, और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जायँ, और यही क्रम चलता रहा। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोये हुए है।

2
नमाज खत्म हो गयी है। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दूकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ों में लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन ओर नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर ऊँटों पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता।

सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। इधर दूकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं-सिपाही और गुजरिया, राजा और वकील, भिश्ती और धोबिन और साधु। वाह! कितने सुन्दर खिलौने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधे पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता है, अभी कवायद किये चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए है। मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी उड़ेलना ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम है। कैसी विद्वमता है उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पोथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किये चले आ रहे हैं। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौने वह कैसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाय। जरा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाय। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा; किस काम के!

मोहसिन कहता है- मेरा भिश्ती रोज पानी दे जायगा साँझ-सबेरे।

महमूद- और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आयेगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा।

नूरे- और मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।

सम्मी- और मेरी धोबिन रोज कपड़े धोयेगी।

हामिद खिलौनों की निंदा करता है- मिट्टी ही के तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जायँ, लेकिन ललचाई हुई आँखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हैं, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचाता रह जाता है।

खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ ली हैं, किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचायी आँखों से सबकी ओर देखता है।

मोहसिन कहता है- हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है!

हामिद को संदेह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद है, मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद, नूरे और सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।

मोहसिन- अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जाव।

हामिद- रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं हैं?

सम्मी- तीन ही पैसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे?

महमूद- हमसे गुलाबजामुन ले जाव हामिद। मोहमिन बदमाश है।

हामिद- मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं।

मोहसिन- लेकिन दिल में कह रहे होंगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?

महमूद- हम समझते हैं, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जायेंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खायगा।

मिठाइयों के बाद कुछ दूकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पर रूक जाता है। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे खयाल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होंगी! फिर उनकी उंगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जायगी। खिलौने से क्या फायदा? व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जायेंगे या छोटे बच्चे जो मेले में नहीं आये हैं जिद कर के ले लेंगे और तोड़ डालेंगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो। कोई आग माँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्माँ बेचारी को कहाँ फुरसत है कि बाजार आयें और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं।

हामिद के साथी आगे बढ़ गये हैं। सबील पर सब-के-सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कितने लालची हैं। इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खायें मिठाइयाँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियाँ निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जायगी। तब घर से पैसे चुरायेंगे और मार खायेंगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं। मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्माँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी-मेरा बच्चा अम्माँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआयें देगा? बड़ों की दुआयें सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। मेरे पास पैसे नहीं हैं।तभी तो मोहसिन और महमूद यों मिजाज दिखाते हैं। मैं भी इनसे मिजाज दिखाऊँगा। खेलें खिलौने और खायें मिठाइयाँ। मै नहीं खेलता खिलौने, किसी का मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ माँगने तो नहीं जाता। आखिर अब्बाजान कभीं न कभी आयेंगे। अम्मा भी आयेंगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा दूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जाता है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियाँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब खूब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसें! मेरी बला से। उसने दुकानदार से पूछा- यह चिमटा कितने का है?

दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा- तुम्हारे काम का नहीं है जी!
‘बिकाऊ है कि नहीं?’
‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहाँ क्यों लाद लाये हैं?’
तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
‘छ: पैसे लगेंगे।‘
हामिद का दिल बैठ गया।
‘ठीक-ठीक पाँच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।‘
हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा- तीन पैसे लोगे?

यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियाँ न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियाँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाएँ करते हैं!

मोहसिन ने हँसकर कहा- यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा?

हामिद ने चिमटे को जमीन पर पटककर कहा- जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियाँ चूर-चूर हो जायँ बच्चू की।

महमूद बोला- तो यह चिमटा कोई खिलौना है?

हामिद- खिलौना क्यों नही है! अभी कंधे पर रखा, बंदूक हो गयी। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे का काम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाय। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगायें, मेरे चिमटे का बाल भी बाँका नही कर सकते। मेरा बहादुर शेर है चिमटा।

सम्मी ने खँजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला- मेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने की है।

हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा- मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खँजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाय तो खत्म हो जाय। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, आँधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।

चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आये हैं, नौ कब के बज ग्ये, धूप तेज हो रही है। घर पहुँचने की जल्दी हो रही है। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।

अब बालकों के दो दल हो गये हैं। मोहसिन, मह्मूद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रार्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हो गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहसिन, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाय तो मियाँ भिश्ती के छक्के छूट जायँ, मियाँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागें, वकील साहब की नानी मर जाय, चोगे में मुँह छिपाकर जमीन पर लेट जायँ। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जायगा और उसकी आँखें निकाल लेगा।

मोहसिन ने एड़ी-चोटी का जोर लगाकर कहा- अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?

हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा- भिश्ती को एक डाँट बतायेगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वाडर पर छिड़कने लगेगा।

मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई- अगर बच्चा पकड़ जायँ तो अदालत में बँधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेंगे।

हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा- हमें पकड़ने कौन आयेगा?

नूरे ने अकड़कर कहा- यह सिपाही बंदूकवाला।

हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा- यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे-हिंद को पकड़ेंगे! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाय। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेंगे क्या बेचारे!

मोहसिन को एक नयी चोट सूझ गयी- तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा।

उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जायगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया- आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लौंडियों की तरह घर में घुस जायेंगे। आग में कूदना वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।

महमूद ने एक जोर लगाया- वकील साहब कुरसी-मेज पर बैठेंगे, तुम्हारा चिमटा तो बावरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहेगा।

इस तर्क ने सम्मी और नूरे को भी सजीव कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही है पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?

हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धाँधली शुरू की- मेरा चिमटा बावरचीखाने में नही रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेंगे, तो जाकर उन्हें जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा।

बात कुछ बनी नहीं। खासी गाली-गलौज थी; लेकिन कानून को पेट में डालने वाली बात छा गयी। ऐसी छा गयी कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गये मानो कोई धेलचा कनकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज है। उसको पेट के अंदर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द है। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।

विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिला। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जायँगे। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?

संधि की शर्तें तय होने लगीं। मोहसिन ने कहा- जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमारा भिश्ती लेकर देखो।
महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किये।

हामिद को इन शर्तों को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आये। कितने खूबसूरत खिलौने हैं।

हामिद ने हारने वालों के आँसू पोंछे- मैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबरी करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।

लेकिन मोहसिन की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिक्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।

मोहसिन- लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा?

महमूद- दुआ को लिये फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्माँ जरूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले?

हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की माँ इतनी खुश न होंगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब कुछ करना था ओर

उन पैसों के इस उपयोग पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमें-हिन्द है ओर सभी खिलौनों का बादशाह।

रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दिये। महमूद ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुँह ताकते रह गये। यह उस चिमटे का प्रसाद था।

3
ग्यारह बजे गाँव में हलचल मच गयी। मेलेवाले आ गये। मोहसिन की छोटी बहन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियाँ भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खुब रोये। उनकी अम्माँ यह शोर सुनकर बिगड़ीं और दोनों को ऊपर से दो-दो चाँटे और लगाये।

मियाँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर तो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूँटियाँ गाड़ी गयी। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिछाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। अदालतों में खस की टट्टियाँ और बिजली के पंखे रहते हैं। क्या यहाँ मामूली पंखा भी न हो! कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जायगी कि नहीं? बाँस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगे। मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गयी।

अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गाँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें। वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आयी, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाये गये, जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठायी और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह ‘छोनेवाले, जागते लहो’ पुकारते चलते हैं। मगर रात तो अँधेरी ही होनी चाहिये। महमूद को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियाँ सिपाही अपनी बन्दूक लिये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टाँग में विकार आ जाता है।

महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टाँग को आनन-फानन जोड़ सकता है। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जवाब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टाँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहो, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है।

अब मियाँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी।
‘यह चिमटा कहाँ था?’
‘मैंने मोल लिया है।
‘कै पैसे में?’
‘तीन पैसे दिये।‘

अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! ‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया।

हामिद ने अपराधी भाव से कहा-तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया।

बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग, कितना ‍सद्‌भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गद्‌गद्‌ हो गया।

और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गयी। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!

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उसने कहा था | चंद्रधर शर्मा गुलेरी | हिन्दी कहानी https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%89%e0%a4%b8%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%95%e0%a4%b9%e0%a4%be-%e0%a4%a5%e0%a4%be-%e0%a4%9a%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%a7%e0%a4%b0-%e0%a4%b6%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%be/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%2589%25e0%25a4%25b8%25e0%25a4%25a8%25e0%25a5%2587-%25e0%25a4%2595%25e0%25a4%25b9%25e0%25a4%25be-%25e0%25a4%25a5%25e0%25a4%25be-%25e0%25a4%259a%25e0%25a4%2582%25e0%25a4%25a6%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25b0%25e0%25a4%25a7%25e0%25a4%25b0-%25e0%25a4%25b6%25e0%25a4%25b0%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25ae%25e0%25a4%25be https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%89%e0%a4%b8%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%95%e0%a4%b9%e0%a4%be-%e0%a4%a5%e0%a4%be-%e0%a4%9a%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%a7%e0%a4%b0-%e0%a4%b6%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%be/#respond Mon, 05 Jun 2023 18:47:35 +0000 https://hindisahityasangam.com/?p=686 उसने कहा था चंद्रधर शर्मा गुलेरी बड़े-बडे़ शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालों की बोली का मरहम लगाएं. जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते […]

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उसने कहा था
चंद्रधर शर्मा गुलेरी

बड़े-बडे़ शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालों की बोली का मरहम लगाएं. जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट यौन-संबंध स्थिर करते हैं, कभी उसके गुप्त गुह्य अंगों से डॉक्टर को लजाने वाला परिचय दिखाते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आंखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरों की चींथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसारभर की ग्लानि और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में हर एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर ‘बचो खालसाजी, हटो भाईजी, ठहरना भाई, आने दो लालाजी, हटो बाछा’ कहते हुए सफ़ेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल से राह खेते हैं. क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े. यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं, चलती है पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई. यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती तो उनकी वचनावली के ये नमूने हैं,‘हट जा जीणे जोगिए, हट जा करमां वालिए, हट जा, पुत्तां प्यारिए. बच जा लम्बी वालिए.’ समष्टि में इसका अर्थ है,‘तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहियों के नीचे आना चाहती है? बच जा.’
ऐसे बम्बू कार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की दुकान पर आ मिले. उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं. वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियां. दुकानदार एक परदेशी से गुथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ों की गड्डी गिने बिना हटता न था.
‘तेरा घर कहां है?’
‘मगरे में…और तेरा?’
‘मांझे में, यहां कहां रहती है?’
‘अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं.’
‘मैं भी मामा के आया हूं, उनका घर गुरु बाज़ार में है.’
इतने में दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा. सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले.
कुछ दूर जाकर लड़के ने मुसकुरा कर पूछा,‘तेरी कुड़माई हो गई?’
इस पर लड़की कुछ आंखें चढ़ाकर ‘धत्’ कहकर दौड़ गई और लड़का मुंह देखता रह गया.
दूसरे, तीसरे दिन सब्ज़ी वाले के यहां, या दूध वाले के यहां अकस्मात् दोनों मिल जाते. महीनाभर यही हाल रहा.
दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, तेरे कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही ‘धत्’ मिला.
एक दिन जब फिर लड़के ने वैसी ही हंसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली,‘हां, हो गई.’
‘कब?’
‘कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू…’ लड़की भाग गई.
लड़के ने घर की सीध ली. रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिनभर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और गोभी वाले ठेले में दूध उंडेल दिया. सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई. तब कहीं घर पहुंचा.
‘राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है. दिन-रात खन्दकों में बैठे हड्डियां अकड़ गईं. लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बर्फ़ ऊपर से. पिंडलियों तक कीचड़ में धंसे हुए हैं. जमीन कहीं दिखती नहीं. घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है. इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े. नगरकोट का जलजला सुना था, यहां दिन में पचीस जलजले होते हैं. जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई तो चटाक से गोली लगती है. न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं.’
‘लहना सिंह और तीन दिन हैं. चार तो खन्दक में बिता ही दिए. परसों ‘रिलीफ़’ आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी. अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे. उसी फिरंगी मेम के बाग़ में. मखमल की सी हरी घास है. फल और दूध की वर्षा कर देती है. लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती. कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क़ को बचाने आए हो.’
‘चार दिन तक पलक नहीं झपकी. बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही. मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाए. फिर सात जर्मनों को अकेला मार कर न लौटूं तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो. पाजी कहीं के, कलों के घोड़े, संगीन देखते ही मुंह फाड़ देते हैं और पैर पकड़ने लगते हैं. यों अंधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं. उस दिन धावा किया था. चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था. पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो…’
‘नहीं तो सीधे बर्लिन पहुंच जाते! क्यों?’ सूबेदार हजार सिंह ने मुस्कुराकर कहा,‘लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाए नहीं चलते. बड़े अफ़सर दूर की सोचते हैं. तीन सौ मील का सामना है. एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?’
‘सूबेदार जी, सच है,’ लहना सिंह बोला,‘पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों में तो जाड़ा धंस गया है. सूर्य निकलता नहीं और खाई में दोनों तरफ़ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं. एक धावा हो जाए, तो गरमी आ जाए.’
“उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल. वजीरा, तुम चार जने बालटियां लेकर खाई का पानी बाहर फेंको. महा सिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाज़े का पहरा बदल ले.’ यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे.
वजीरा सिंह पलटन का विदूषक था. बाल्टी में गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला,‘मैं पाधा बन गया हूं. करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!’ इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए. लहना सिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा,‘अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो. ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा. हां, देश क्या है, स्वर्ग है. मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा ज़मीन यहां मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊंगा.’
‘लाड़ी होरा को भी यहां बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम…’
‘चुप कर. यहां वालों को शरम नहीं.’
‘देश-देश की चाल है. आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते. वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओंठों में लगाना चाहती है और मैं पीछे हटता हूं तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क़ के लिए लड़ेगा नहीं.’
‘अच्छा, अब बोध सिंह कैसा है?’
‘अच्छा है.’
‘जैसे मैं जानता ही न होऊं! रातभर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुज़र करते हो. उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो. अपने सूखे लकड़ी के तख़्तों पर उसे सुलाते हो. आप कीचड़ में पड़े रहते हो. कहीं तुम न मांदे पड़ जाना. जाड़ा क्या है, मौत है और ‘निमोनिया’ से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते.’
‘मेरा डर मत करो. मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा. भाई कीरत सिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाए हुए आंगन के आम के पेड़ की छाया होगी.’
वजीरा सिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा,‘क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हां भाइयों, कैसे?’
दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुं
क बणाया वे मजेदार गोरिये
हुण लाणा चटाका कदुए नुं
कौन जानता था कि दाढ़ियावाले घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे. पर सारी खन्दक इस गीत से गूंज उठी और सिपाही फिर ताज़े हो गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों.
दोपहर, रात गई है. अन्धेरा है. सन्नाटा छाया हुआ है. बोधा सिंह ख़ाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहना सिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है. लहना सिंह पहरे पर खड़ा हुआ है. एक आंख खाई के मुंह पर है और एक बोधा सिंह के दुबले शरीर पर. बोधा सिंह कराहा.
‘क्यों बोधा भाई, क्या है?’
‘पानी पिला दो’
लहना सिंह ने कटोरा उसके मुंह से लगा कर पूछा,‘कहो कैसे हो?’ पानी पी कर बोधा बोला,‘कंपनी छूट रही है. रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं. दांत बज रहे हैं.’
‘अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!’
‘और तुम?’
‘मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है. पसीना आ रहा है.’
‘ना, मैं नहीं पहनता. चार दिन से तुम मेरे लिए…’
‘हां, याद आई. मेरे पास दूसरी गरम जरसी है. आज सबेरे ही आई है. विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला करें.’ यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा.
‘सच कहते हो?’
‘और नहीं झूठ?’ यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने ज़बरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ. मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी.
आधा घण्टा बीता. इतने में खाई के मुंह से आवाज़ आई,‘सूबेदार हजारा सिंह.’
‘कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!’ कह कर सूबेदार तन कर फ़ौजी सलाम करके सामने हुआ.
‘देखो, इसी समय धावा करना होगा. मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है. उसमें पचास से जियादा जर्मन नहीं हैं. इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है. तीन-चार घुमाव हैं. जहां मोड़ है, वहां पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूं. तुम यहां दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो. खन्दक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो. हम यहां रहेगा.’
‘जो हुक्म.’
चुपचाप सब तैयार हो गए. बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा. तब लहना सिंह ने उसे रोका. लहना सिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उंगली से बोधा की ओर इशारा किया. लहना सिंह समझ कर चुप हो गया. पीछे दस आदमी कौन रहें. इस पर बड़ी हुज्जत हुई. कोई रहना न चाहता था. समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया. लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुंह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे. दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा,‘लो तुम भी पियो.’
आंख मारते-मारते लहना सिंह सब समझ गया. मुंह का भाव छिपा कर बोला,‘लाओ साहब.’ हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुंह देखा. बाल देखे. तब उसका माथा ठनका. लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहां उड़ गए और उनकी जगह क़ैदियों से कटे बाल कहां से आ गए?’ शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहना सिंह ने जांचना चाहा. लपटन साहब पांच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे.
‘क्यों साहब, हम लोग हिन्दुस्तान कब जाएंगे?’
‘लड़ाई ख़त्म होने पर. क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं?’
‘नहीं साहब, शिकार के वे मज़े यहां कहां? याद है, पारसाल नक़ली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी ज़िले में शिकार करने गए थे?’
‘हां… हां…’
‘वहीं जब आप खोते पर सवार थे और, …और आपका ख़ानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था? बेशक़ पाजी कहीं का. सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थी. और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली. ऐसे अफ़सर के साथ शिकार खेलने में मज़ा है. क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगाएंगे.’
‘हां, पर मैंने वह विलायत भेज दिया.’
‘ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फ़ुट के तो होंगे?’
‘हां, लहनासिंह, दो फ़ुट चार इंच के थे. तुमने सिगरेट नहीं पिया?’
‘पीता हूं साहब, दियासलाई ले आता हूं,’ कह कर लहना सिंह खन्दक में घुसा. अब उसे संदेह नहीं रहा था. उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए. अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया.
‘कौन? वजीर सिंह?’
‘हां, क्यों लहना? क्या क़यामत आ गई? ज़रा तो आंख लगने दी होती?’
‘होश में आओ. क़यामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है.’
‘क्या? लपटन साहब या तो मारे गए हैं या क़ैद हो गए हैं. उनकी वर्दी पहन कर कोई जर्मन आया है. सूबेदार ने इसका मुंह नहीं देखा. मैंने देखा है, और बातें की हैं. सौहरा साफ़ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू. और मुझे पीने को सिगरेट दिया है.’
‘तो अब?’
‘अब मारे गए. धोखा है. सूबेदार कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहां खाई पर धावा होगा उधर उन पर खुले में धावा होगा. उठो, एक काम करो. पलटन में पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ. अभी बहुत दूर न गए होंगे. सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें. खंदक की बात झूठ है. चले जाओ, खंदक के पीछे से ही निकल जाओ. पत्ता तक न खुड़के. देर मत करो.’
‘हुकुम तो यह है कि यहीं…’
‘ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम है… जमादार लहना सिंह जो इस वक़्त यहां सबसे बड़ा अफ़सर है, उसका हुकुम है. मैं लपटन साहब की ख़बर लेता हूं.’
‘पर यहां तो तुम आठ ही हो.’
‘आठ नहीं, दस लाख. एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है. चले जाओ.’
लौटकर खाई के मुहाने पर लहना सिंह दीवार से चिपक गया. उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले. तीनों को जगह-जगह खंदक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बांध दिया. तार के आगे सूत की गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा. बाहर की तरफ़ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी रखने… बिजली की तरह दोनों हाथों से उलटी बन्दूक को उठाकर लहना सिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर दे मारा. धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी. लहना सिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब ‘आंख! मीन गाट्ट’ कहते हुए चित हो गए. लहना सिंह ने तीनों गोले बीनकर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया. जेबों की तलाशी ली. तीन-चार लिफ़ाफ़े और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया.
साहब की मूर्च्छा हटी. लहना सिंह हंसकर बोला,‘क्यों, लपटन साहब, मिज़ाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं. यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं. यह सीखा कि जगाधरी के ज़िले में नीलगायें होती हैं और उनके दो फ़ुट चार इंच के सींग होते हैं. यह सीखा कि मुसलमान ख़ानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं. पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहां से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिना ‘डैम’ के पांच लफ़्ज़ भी नहीं बोला करते थे.’
लहना सिंह ने पतलून की जेबों की तलाशी नहीं ली थी. साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए दोनों हाथ जेबों में डाले. लहना सिंह कहता गया,‘चालाक तो बड़े हो, पर मांझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है. उसे चकमा देने के लिए चार आंखें चाहिए. तीन महीने हुए एक तुर्की मौलवी मेरे गांव में आया था. औरतों को बच्चे होने का ताबीज बांटता था और बच्चों को दवाई देता था. चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं. वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गए हैं. गौ को नहीं मारते. हिन्दुस्तान में आ जाएंगे तो गोहत्या बन्द कर देगे. मंडी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रुपए निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है. डाक बाबू पोल्हू राम भी डर गया था. मैंने मुल्ला की दाढ़ी मूंड़ दी थी और गांव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गांव में अब पैर रखा तो…’
इतने में साहब की जेब में से पिस्तौल चली और लहना की जांघ में गोली लगी. इधर लहना की हेनरी मार्टिन के दो फ़ायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी.
धड़ाका सुनकर सब दौड़ आए.
बोधा चिल्लाया,‘क्या है?’
लहना सिंह ने उसे तो यह कह कर सुला दिया कि,‘एक हड़का कुत्ता आया था, मार दिया’ और औरों से सब हाल कह दिया. बंदूकें लेकर सब तैयार हो गए. लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ़ पट्टियां कसकर बांधी. घाव मांस में ही था. पट्टियों के कसने से लहू बंद हो गया.
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े. सिखों की बंदूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका. दूसरे को रोका. पर यहां थे आठ (लहना सिंह तक-तक कर मार रहा था. वह खड़ा था और बाक़ी लेटे हुए थे) और वे सत्तर. अपने मुर्दा भाईयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुसे आते थे. थोड़े मिनटों में वे… अचानक आवाज आई,‘वाहे गुरुजी की फतह! वाहेगुरु दी का खालसा!’ और धड़ाधड़ बंदूकों के फ़ायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे. ऐन मौक़े पर जर्मन दो चक्कों के पाटों के बीच में आ गए. पीछे से सूबेदार हजारा सिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने से लहना सिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे. पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया.
एक किलकारी और ‘अकाल सिक्खां दी फौज आई. वाहे गुरु जी दी फतह! वाहे गुरु जी दी खालसा! सत्त सिरी अकाल पुरुष!’ और लड़ाई ख़तम हो गई. तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे. सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गए. सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आर पार निकल गई. लहना सिंह की पसली में एक गोली लगी. उसने घाव को खंदक की गीली मिट्टी से पूर लिया. और बाक़ी का साफा कसकर कमर बन्द की तरह लपेट लिया. किसी को ख़बर नहीं हुई कि लहना को दूसरा घाव, भारी घाव लगा है.
लड़ाई के समय चांद निकल आया था. ऐसा चांद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’ नाम सार्थक होता है. और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा में ‘दंतवीणो पदेशाचार्य’ कहलाती. वजीरा सिंह कह रहा था कि कैसे मन-मनभर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था. सूबेदार लहना सिंह से सारा हाल सुन और काग़ज़ात पाकर उसकी तुरंत बुद्धि को सराह रहे थे और कर रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते. इस लड़ाई की आवाज़ तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी. उन्होंने पीछे टेलीफ़ोन कर दिया था. वहां से झटपट दो डॉक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियां चलीं, जो कोई डेढ़ घंटे के अंदर-अंदर आ पहुंचीं. फ़ील्ड अस्पताल नज़दीक था. सुबह होते-होते वहां पहुंच जाएंगे, इसलिए मामूली पट्टी बांधकर एक गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें रखी गईं. सूबेदार ने लहना सिंह की जांघ में पट्टी बंधवानी चाही. बोध सिंह ज्वर से बर्रा रहा था. पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे देखा जाएगा. वह गाड़ी में लिटाया गया. लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं थे. यह देख लहना ने कहा,‘तुम्हें बोधा की क़सम है और सूबेदारनी जी की सौगंध है तो इस गाड़ी में न चले जाओ.’
‘और तुम?’
‘मेरे लिए वहां पहुंचकर गाड़ी भेज देना. और जर्मन मुर्दों के लिए भी तो गाड़ियां आती होगीं. मेरा हाल बुरा नहीं है. देखते नहीं मैं खड़ा हूं? वजीरा सिंह मेरे पास है ही.’
‘अच्छा, पर…’
‘बोधा गाड़ी पर लेट गया. भला, आप भी चढ़ आओ. सुनिए तो, सूबेदारनी होरां को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना.’
‘और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उन्होंने कहा था, वह मैंने कर दिया.’
गाड़ियां चल पड़ी थीं. सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा,‘तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं. लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे. अपनी सूबेदारनी से तू ही कह देना. उसने क्या कहा था?’
‘अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ. मैंने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना.’
गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया,‘वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे. तर हो रहा है.’

 

Hindi Story Usne Kaha tha by Guleri

मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है. जन्मभर की घटनाएं एक-एक करके सामने आती हैं. सारे दृश्यों के रंग साफ़ होते हैं, समय की धुंध बिल्कुल उन पर से हट जाती है. लहना सिंह बारह वर्ष का है. अमृतसर में मामा के यहां आया हुआ है. दहीवाले के यहां, सब्ज़ीवाले के यहां, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती है. जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई? तब वह ‘धत्’ कहकर भाग जाती है. एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा,‘हां, कल हो गई, देखते नहीं, यह रेशम के फूलों वाला सालू?’ यह सुनते ही लहना सिंह को दुख हुआ. क्रोध हुआ. क्यों हुआ?
‘वजीरा सिंह पानी पिला दे.’
पच्चीस वर्ष बीत गए. अब लहना सिंह नंबर 77 राइफ़ल्स में जमादार हो गया है. उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा, न मालूम वह कभी मिली थी या नहीं. सात दिन की छुट्टी लेकर ज़मीन के मुक़दमे की पैरवी करने वह घर गया. वहां रेजीमेंट के अफ़सर की चिट्ठी मिली. फ़ौरन चले आओ. साथ ही सूबेदार हजारा सिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधा सिंह भी लाम पर जाते हैं, लौटते हुए हमारे घर होते आना. साथ चलेंगे.
सूबेदार का घर रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था. लहना सिंह सूबेदार के यहां पहुंचा. जब चलने लगे तब सूबेदार बेडे़ में निकल कर आया. बोला,‘लहना सिंह, सूबेदारनी तुमको जानती है. बुलाती है. जा मिल आ.’
लहना सिंह भीतर पहुंचा. ‘सूबेदारनी मुझे जानती है? कब से? रेजीमेंट के क्वॉर्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं.’ दरवाज़े पर जाकर ‘मत्था टेकना’ कहा. असीस सुनी. लहनासिंह चुप‍.
‘मुझे पहचाना?’
‘नहीं.’
‘…तेरी कुड़माई हो गई? …धत् …कल हो गई …देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला सालू …अमृतसर में!’
भावों की टकराहट से मूर्च्छा खुली. करवट बदली. पसली का घाव बह निकला.
‘वजीरा सिंह, पानी पिला,’ उसने कहा था.
स्वप्न चल रहा है. सूबेदारनी कह रही है,‘मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया. एक काम कहती हूं. मेरे तो भाग फूट गए. सरकार ने बहादुरी का ख़िताब दिया है, लायलपुर में ज़मीन दी है, आज नमक हलाली का मौक़ा आया है. पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पलटन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है. फ़ौज में भरती हुए उसे एक ही वर्ष हुआ. उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नही जिया.’
सूबेदारनी रोने लगी,‘अब दोनों जाते हैं. मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन तांगे वाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था. तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे. आप घोड़ों की लातों पर चले गए थे. और मुझे उठाकर दुकान के तख़्त के पास खड़ा कर दिया था. ऐसे ही इन दोनों को बचाना. यह मेरी भिक्षा है. तुम्हारे आगे मैं आंचल पसारती हूं.’
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई. लहना सिंह भी आंसू पोंछता हुआ बाहर आया.
‘वजीरा सिंह, पानी पिला,’ उसने कहा था.
लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरा सिंह बैठा है. जब मांगता है, तब पानी पिला देता है. आधे घंटे तक लहना फिर चुप रहा, फिर बोला,‘कौन? कीरतसिंह?’
वजीरा ने कुछ समझकर कहा,‘हां.’
‘भइया, मुझे और ऊंचा कर ले. अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले.’
वजीरा ने वैसा ही किया.
‘हां, अब ठीक है. पानी पिला दे. बस. अब के हाड़ में यह आम ख़ूब फलेगा. चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठकर आम खाना. जितना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही बड़ा यह आम, जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने मैंने इसे लगाया था.’
वजीरा सिंह के आंसू टप-टप टपक रहे थे. कुछ दिन पीछे लोगों ने अख़बारों में पढ़ा…
फ्रांस और बेल्जियम, 67वीं सूची. मैदान में घावों से मरा नंबर 77 सिख राइफ़ल्स जमादार लहना सिंह.

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गैंग्रीन
अज्ञेय

 

 

दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते ही मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझिल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था… मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक-सी मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, ‘‘आ जाओ।’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।

भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, ‘‘वे यहाँ नहीं हैं?’’ ‘‘अभी आए नहीं, दफ्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।’’ ‘‘कब से गये हुए हैं?’’ ‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं।’’ मैं ‘हूँ’ कहकर पूछने को हुआ, ‘‘और तुम इतनी देर क्या करती हो?’’ पर फिर सोचा आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं है। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा। मालती एक पंखा उठा लायी, और मुझे हवा करने लगी। मैंने आपत्ति करते हुए कहा, ‘‘नहीं, मुझे नहीं चाहिए।’’ पर वह नहीं मानी, बोली, ‘‘वाह। चाहिए कैसे नहीं? इतनी धूप में तो आए हो। यहाँ तो…’’ मैंने कहा, ‘‘अच्छा, लाओ मुझे दे दो।’’

वह शायद, ‘ना’ करनेवाली थी, पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई ‘हुँह’ करके उठी और भीतर चली गयी।

मैं उसके जाते हुए, दुबले शरीर को देखकर सोचता रहा। यह क्या है… यह कैसी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है… मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहिन है, किन्तु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से इकठ्ठे खेले हैं, इकठ्ठे लड़े और पिटे हंक और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकठ्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्या की स्वेच्छा और स्वच्छन्दता रही है, वह कभी भ्रातृत्व के, या बड़े-छोटेपन के बन्धनों में नहीं घिरा…

मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखने आया हूँ। जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा था, तब वह लडक़ी ही थी, अब वह विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है। इससे कोई परिवर्तन उसमें आया होगा और यदि आया होगा तो क्या, यह मैंने अभी सोचा नहीं था, किन्तु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा था, यह कैसी छाया इस घर पर छायी हुई है… और विशेषतया मालती पर…

मालती बच्चे को लेकर लौट आयी और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गयी। मैंने अपनी कुरसी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, ‘‘इसका नाम क्या है?’’ मालती ने बच्चों की ओर देखते हुए उत्तर दिया, ‘‘नाम तो कोई निश्चित नहीं किया, वैसे टिटी कहते हैं।’’ मैंने उसे बुलाया, ‘‘टिटी, टीटी, आ जा’’ पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गया, और रुआँसा-सा होकर कहने लगा, ‘‘उहुँ-उहुँ-उहुँ-ऊँ…’’

मालती ने फिर उसकी ओर एक नजर देखा, और फिर बाहर आँगन की ओर देखने ली… काफ़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही था, जिसमें मैं प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछे, किन्तु उसके बाद एकाएक मुझे ध्यान हुआ, मालती ने कोई बात ही नहीं की… यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसा हूँ, कैसे आया हूँ… चुप बैठी है, क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गयी? या अब मुझे दूर इस विशेष अन्तर पर-रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छन्दता अब तो नहीं हो सकती… पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए…

मैंने कुछ खिन्न-सा होकर, दूसरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘जान पड़ता है, तुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई-’’ उसने एकाएक चौंककर कहा, ‘‘हूँ?’’ यह ‘हूँ’ प्रश्न-सूचक था, किन्तु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात सुनी नहीं थी, केवल विस्मय के कारण। इसलिए मैंने अपनी बात दुहरायी नहीं, चुप बैठा रहा। मालती कुछ बोली ही नहीं, थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा। वह एकटक मेरी ओर देख रही थी, किन्तु मेरे उधर उन्मुख होते ही उसने आँखें नीची कर लीं। फिर भी मैंने देख, उन आँखों में कुछ विचित्र-सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुन: जगाकर गतिमान करने कभी, किसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो… वैसे जैसे बहुत देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाए कि वह उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता… मुझे ऐसा जान पड़ा मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया गया हो, वह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाए…

तभी किसी ने किवाड़ खटखटाये। मैंने मालती की ओर देखा, पर वह हिली नहीं। जब किवाड़ दूसरी बार खटखटाये गये, तब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गयी। वे, यानी मालती के पति आए। मैंने उन्हें पहली बार देखा था, यद्यपि फोटो से उन्हें पहचानता था। परिचय हुआ। मालती खाना तैयार करने आँगन में चली गयी, और हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगे, उनकी नौकरी के बारे में, उनके जीवन के बारे में, उस स्थान के बारे में, और ऐसे अन्य विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैं, एक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर…

मालती के पति का नाम है महेश्वर। वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेन्सरी के डॉक्टर हैं, उसकी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं। प्रात:काल सात बजे डिस्पेंसरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैं, उसके बाद दोपहर-भर छुट्टी रहती है, केवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के लिए जाते हैं, डिस्पेंसरी के साथ के छोटे-से अस्पातल में पड़े हुए रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करने… उनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयाँ। वह स्वयं उकताये हुए हैं और इसलिए और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं…

मालती हम दोनों के लिए खाना ले आयी। मैंने पूछा, ‘‘तुम नहीं खाओगी? या खा चुकीं?’’ महेश्वर बोले, कुछ हँसकर, ‘‘वह पीछे खाया करती है…’’

पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी! महेश्वर खाना आरम्भ करते हुए मेरी ओर देेखकर बोले, ‘‘आपको तो खाने का मजा क्या ही आएगा ऐसे बेवक्त खा रहे हैं?’’ मैंने उत्तर दिया, ‘‘वाह! देर से खाने पर तो और भी अच्छा लगता है, भूख बढ़ी हुई होती है, पर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा।’’ मालती टोककर बोली, ‘‘ऊहूँ, मेरे लिए तो यह नयी बात नहीं है… रोज़ ही ऐसा होता है…’’ मालती बच्चे को गोद में लिये हुए थी। बच्चा रो रहा था, पर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था। मैंने कहा, ‘‘यह रोता क्यों है?’’

मालती बोली, ‘‘हो ही गया है चिड़हिचड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है।’’ फिर बच्चे को डाँटकर कहा, ‘‘चुप कर।’’ जिससे वह और भी रोने लगा, मालती ने भूमि पर बैठा दिया। और बोली, ‘‘अच्छा ले, रो ले।’’ और रोटी लेने आँगन की ओर चली गयी! जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजनेवाले थे, महेश्वर ने बताया कि उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना है, वहाँ एक-दो चिन्ताजनक केस आए हुए हैं, जिनका ऑपरेशन करना पड़ेगा… दो की शायद टाँग काटनी पड़े, गैंग्रीन हो गया है… थोड़ी ही देर में वह चले गये। मालती किवाड़ बन्द कर आयी और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, ‘‘अब खाना तो खा लो, मैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ।’’ वह बोली, ‘‘खा लूँगी, मेरे खाने की कौन बात है,’’ किन्तु चली गयी। मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगा, जिससे वह कुछ देर के लिए शान्त हो गया। दूर… शायद अस्पताल में ही, तीन खडक़े। एकाएक मैं चौंका, मैंने सुना, मालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लम्बी-सी थकी हुई साँस के साथ कह रही है, ‘‘तीन बज गये…’’ मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य सम्पन्न हो गया हो… थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गयी, मैंने पूछा, ‘‘तुम्हारे लिए कुछ बचा भी था? सब कुछ तो…’’ ‘‘बहुत था।’’ ‘‘हाँ, बहुत था, भाजी तो सारी मैं ही खा गया था, वहाँ बचा कुछ होगा नहीं, यों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था।’’ मैंने हँसकर कहा। मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, ‘‘यहाँ सब्जी-वब्जी तो कुछ होती ही नहीं, कोई आता-जाता है, तो नीचे से मँगा लेते हैं; मुझे आए पन्द्रह दिन हुए हैं, जो सब्जी साथ लाए थे वही अभी बरती जा रही है…’’ मैंने पूछा, ‘‘नौकर कोई नहीें है?’’ ‘‘कोई ठीक मिला नहीं, शायद दो-एक दिन में हो जाए।’’ ‘‘बरतन भी तुम्हीं माँजती हो?’’ ‘‘और कौन?’’ कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आयी। मैंने पूछा, ‘‘कहाँ गयी थीं?’’ ‘‘आज पानी ही नहीं है, बरतन कैसे मँजेंगे?’’ ‘‘क्यों, पानी को क्या हुआ?’’ ‘‘रोज ही होता है… कभी वक्त पर तो आता नहीं, आज शाम को सात बजे आएगा, तब बरतन मँजेंगे।’’ ‘‘चलो तुम्हें सात बजे तक तो छुट्टी हुई’’ कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगा, छुट्टी क्या खाक हुई?’’ यही उसने कहा। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था, पर मेरी सहायता टिटी ने कह, एकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा। मैंने उसे दे दिया। थोड़ी देर फिर मौन रहा, मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगा, तब मालती को याद आया कि उसने मेरे आने का कारण तो पूछा नहीं, और बोली, ‘‘यहाँ आए कैसे?’’ मैंने कहा ही तो, ‘‘अच्छा, अब याद आया? तुमसे मिलने आया था, और क्या करने?’’ ‘‘तो दो-एक दिन रहोगे न?’’ ‘‘नहीं, कल चला जाऊँगा, ज़रूरी जाना है।’’ मालती कुछ नहीं बोली, कुछ खिन्न-सी हो गयी। मैं फिर नोट बुक की तरफ़ देखने लगा। थोड़ी देर बाद मुझे ही ध्यान हुआ, मैं आया तो हूँ मालती से मिलने किन्तु, यहाँ वह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँ, पर बात भी क्या की जाए? मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है, वह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँ, जैसे-हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती… मैंने पूछा, ‘‘तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?’’ मैं चारों ओर देखने लगा कि कहीं किताबें दीख पड़ें। ‘‘यहाँ!’’ कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी। वह हँसी कह रही थी, ‘‘यहाँ पढऩे को क्या?’’ मैंने कहा, ‘‘अच्छा, मैं वापस जाकर जरूर कुछ पुस्तकें भेजूँगा…’’ और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया… थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, ‘‘आए कैसे हो, लारी में?’’ ‘‘पैदल।’’ ‘‘इतनी दूर? बड़ी हिम्मत की।’’ ‘‘आखिर तुमसे मिलने आया हूँ।’’ ‘‘ऐसे ही आये हो?’’ ‘‘नहीं, कुली पीछे आ रहा है,सामान लेकर। मैंने सोचा, बिस्तरा ले ही चलूँ।’’ ‘‘अच्छा किया, यहाँ तो बस…’’ कहकर मालती चुप रह गयी फिर बोली, ‘‘तब तुम थके होगे, लेट जाओ।’’ ‘‘नहीं बिलकुल नहीं थका।’’ ‘‘रहने भी दो, थके नहीं, भला थके हैं?’’ ‘‘और तुम क्या करोगी?’’ ‘‘मैं बरतन माँज रखती हूँ, पानी आएगा तो धुल जाएँगे।’’ थोड़ी देर में मालती उठी और चली गयी, टिटी को साथ लेकर। तब मैं भी लेट गया और छत की ओर दखेने लगा… मेरे विचारों के साथ आँगन से आती हुई बरतनों के घिसने की खन-खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक-स्वर उत्पन्न करने लगी, जिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पडऩे लगे, मैं ऊँघने लगा… एकाएक वह एक-स्वर टूट गया-मौन हो गया। इससे मेरी तन्द्रा भी टूटी, मैं उस मौन में सुनने लगा… चार खडक़ रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गयी थी… वही तीन बजेवाली बात मैंने फिर देखी, अबकी बार और उग्र रूप में। मैंने सुना, मालती एक बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस यन्त्रवत- वह भी थके हुए यन्त्र के-से स्वर में कह रही है, ‘‘चार बज गये’’ मानो इस अनैच्छिक समय गिनने-गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो, वैसे ही, जैसे मोटर का स्पीडोमीटर यन्त्रवत् फासला नापता जाता है, और यन्त्रवत् विश्रान्त स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया… न जाने कब, कैसे मुझे नींद आ गयी। तब छह कभी के बज चुके थे,जब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुली, और मैं ने देखा कि महेश्वर लौट आये हैं, और उनके साथ ही बिस्तर लिये हुए मेरा कुली। मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद आया, पानी नहीं होगा। मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से पूछा, ‘‘आपने बड़ी देर की?’’ उन्होंने किंचित् ग्लानि -भरे स्वर में कहा, ‘‘हाँ, आज वह गैंग्रीन का ऑपरेशन करना ही पड़ा। एक कर आया हूँ, दूसरे को एम्बुलेंस में बड़े अस्पताल भिजवा दिया है।’’ मैंने पूछा, ‘‘गैंग्रीन कैसे हो गया?’’ ‘‘एक काँटा चुभा था, उसी से हो गया, बड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ के…’’ मैंने पूछा, ‘‘यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैं? आय के लिहाज से नहीं, डॉक्टरी के अभ्यास के लिए?’’ बोले, ‘‘हाँ, मिल ही जाते हैं, यही गैंग्रीन, हर दूसरे-चौथे दिन एक केस आ जाता है, नीचे बड़े अस्पताल में भी…’’ मालती आँगन से ही सुन रही थी, अब आ गयी, बोली,’’हाँ, केस बनाते देर क्या लगती है? काँटा चुभा था, इस पर टाँग काटनी पड़े, यह भी कोई डॉक्टरी है? हर दूसरे दिन किसी की टाँग, किसी की बाँह काट आते हैं, इसी का नाम है अच्छा अभ्यास!’’ महेश्वर हँसे, बोले, ‘‘न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?’’ ‘‘हाँ, पहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगे? आज तक तो सुना नहीं था कि काँटों के चुभने से मर जाते हैं…’’ महेश्वर ने उत्तर नहीं दिया, मुस्करा दिये, मालती मेरी ओर देखकर बोली, ‘‘ऐसे ही होते हैं डॉक्टर, सरकारी अस्पताल है न, क्या परवाह है। मैं तो रोज ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो खयाल ही नहीं आता। पहले तो रात-रात भर नींद नहीं आया करती थी।’’ तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा, टिप् टिप् टिप् टिप् टिप् टिप्… मालती ने कहा, ‘‘पानी!’’ और उठकर चली गयी। खनखनाहट से हमने जाना, बरतन धोये जाने लगे हैं… टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा था, अब एकाएक उन्हें छोड़ मालती की ओर खिसकता हुआ चला। महेश्वर ने कहा, ‘‘उधर मत जा!’’ और उसे गोद में उठा लिया, वह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा। महेश्वर बोले… ‘‘अब रो-रोकर सो जाएगा, तभी घर में चैन होगी।’’ मैंने पूछा, ‘‘आप लोग भीतर ही सोते हैं? गरमी तो बहुत होती है?’’ ‘‘होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैं, पर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जाए? अबकी नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे।’’ फिर कुछ रुककर बोले, ‘‘अच्छा तो बाहर ही सोएँगे। आपके आने का इतना लाभ ही होगा।’’ टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था। महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दिया और पलंग बाहर खींचने लगे, मैंने कहा, ‘‘मैं मदद करता हूँ,’’ और दूसरी ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिया। अब हम तीनों… महेश्वर, टिटी और मैं पलंग पर बैठ गये और वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने लगे, बाहर आकर वह कुछ चुप हो गया था, किन्तु बीचबीच में जैसे एकाएक कोई भूला हुआ कर्र्तव्य याद करके रो उठता था, और फिर एकदम चुप हो जाता था… और कभी-कभी हम हँस पड़ते थे, या महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे… मालती बरतन धो चुकी थी। जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई छप्पर की ओर चली, तब महेश्वर ने कहा, ‘‘थोड़े-से आम लाया हूँ, वह भी धो लेना।’’ ‘‘कहाँ हैं?’’ ‘‘अँगीठी पर रखे हैं, कागज में लिपटे हुए।’’ मालती ने भीतर जाकर आम उठाये और अपने आँचल में डाल लिये। जिस कागज में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अखबार का टुकड़ा था। मालती चलती-चलती सन्ध्या के उस क्षीण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी… वह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रही, जब दोनों ओर पढ़ चुकी, तब एक लम्बी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी। मुझे एकाएक याद आया… बहुत दिनों की बात थी… जब हम अभी स्कूल में भरती हुए ही थे। जब हमारा सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ी विजय थी हाजिरी हो चुकने के बाद चोरी के क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी पर आम के बगीचे में पेड़ों में चढक़र कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना। मुझे याद आया… कभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी खिन्न-मन लौट आया करता था।

मालती कुछ नहीं पढ़ती थी, उसके माता-पिता तंग थे, एक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज पढ़ा करो, हफ्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मारकर चमड़ी उधेड़ दूँगा, मालती ने चुपचाप किताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने, बीस पेज, फाडक़र फेंक देती, अपने खेल में किसी भाँति फ़र्क़ न पडऩे देती। जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, ‘‘किताब समाप्त कर ली?’’ तो उत्तर दिया- ‘‘हाँ, कर ली,’’ पिता ने कहा, ‘‘लाओ मैं प्रश्न पूछूँगा,’’ तो चुप खड़ी रही। पिता ने फिर कहा, तो उद्धत स्वर में बोली, ‘‘किताब मैंने फाडक़र फेंक दी है, मैं नहीं पढूँगी।’’

उसके बाद वह बहुत पिटी, पर वह अलग बात है। इस समय मैं यही सोच रहा था कि वही उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गयी है, कितनी शान्त, और एक अखबार के टुकड़े को तरसती है…. यह क्या, यह… तभी महेश्वर ने पूछा, ‘‘रोटी कब बनेगी?’’ ‘‘बस अभी बनाती हूँ।’’ पर अबकी बार जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्तव्यभावना बहुत विस्तीर्ण हो गयी,वह मालती की, ओर हाथ बढ़ाकर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गयी, रसोई में बैठकर एक हाथ से उसे थपकने और दूसरे से कई एक छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी… और हम दोनों चुपचाप रात्रि की, और भोजन की, और एक-दूसरे के कुछ कहने की, और न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे। हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गये थे और टिटी सो गया था। मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गयी थी। वह सो गया था, पर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था। एक बार तो उठकर बैठ भी गया था, पर तुरन्त ही लेट गया। मैंने महेश्वर से पूछा, ‘‘आप तो थके होंगे, सो जाइए।’’ वह बोले, ‘‘थके तो आप अधिक होंगे… अठारह मील पैदल चलकर आये हैं।’’ किन्तु उनके स्वर ने मानो जोड़ दिया, ‘‘थका तो मैं भी हूँ।’’ मैं चुप रहा, थोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बताया, वह ऊँघ रहे हैं। तब लगभग साढ़े दस बजे थे, मालती भोजन कर रही थी। मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहा, वह किसी विचार में-यद्यपि बहुत गहरे विचार में नहीं, लीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थी, फिर मैं इधर-उधर खिसककर, पर आराम से होकर, आकाश की ओर देखने लगा। पूर्णिमा थी, आकाश अनभ्र था। मैंने देखा.. उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यन्त शुष्क और नीरस लगनेवाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही है, अत्यन्त शीतलता और स्निग्धता से छलक रही है, मानो चन्द्रिका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो… मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष… गरमी से सूखकर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष… धीरे-धीरे गा रहे हों… कोई राग जो कोमल है, किन्तु करुण नहीं, अशान्तिमय है, किन्तु उद्वेगमय नहीं… मैंने देखा, प्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर काट रहे हैं, वे भी सुन्दर दीखते हैं… मैंने देखा… दिन-भर की तपन, अशान्ति, थकान, दाह, पहाड़ों में से भाप से उठकर वातावरण में खोये जा रहे हैं, जिसे ग्रहण करने के लिए पर्वत-शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्षरूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं.. पर यह सब मैंने ही देखा, अकेले मैंने… महेश्वर ऊँघ रहे थे और मालती उस समय भोजन से निवृत्त होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बरतन गरम पानी से धो रही थी, और कह रही थी… ‘‘अभी छुट्टी हुई जाती है।’’ और मेरे कहने पर ही कि ‘ग्यारह बजनेवाले हैं’ धीरे से सिर हिलाकर जता रही थी कि रोज़ ही इतने बज जाते हैं… मालती ने वह सब कुछ नहीं देखा, मालती का जीवन अपनी रोज़ की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चन्द्रिका के लिए, एक संसार के लिए, रुकने को तैयार नहीं था… चाँदनी में शिशु कैसा लगता है, इस अलस जिज्ञासा ने मैंने टिटी की ओर देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसककर पलंग से नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा। महेश्वर ने चौंककर कहा, ‘‘क्या हुआ?’’ मैं झपटकर उसे उठाने दौड़ा, मालती रसोई से बाहर निकल आयी, मैंने उस ‘खट्’ शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, ‘‘चोट बहुत लग गयी बेचारे के।’’ यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया। मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए, हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘इसके चोटें लगती ही रहती हैं, रोज ही गिर पड़ता है।’’

एक छोटे क्षण-भर के लिए मैं स्तब्ध हो गया, फिर एकाएक मेरे मन ने, मेरे समूचे अस्तित्व ने, विद्रोह के स्वर में कहा-मेरे मन ने भीतर ही, बाहर एक शब्द भी नहीं निकला -’’माँ, युवती माँ, यह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया है, जो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो-और यह अभी, जब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है?’’

और, तब एकाएक मैंने जाना कि वह भावना मिथ्या नहीं है, मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुम्ब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गयी है, उसके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गयी है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गयी है कि वे उसे पहचानते ही नहीं, उसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, मैंने उस छाया को देख भी लिया… इतनी देर में, पूर्ववत् शान्ति हो गयी था। महेश्वर फिर लेटकर ऊँघ रहे थे। टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपटकर चुप हो गया था, यद्यपि कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे-से शरीर को हिला देती थी। मैं भी अनुभव करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है। मालती चुपचाप आकाश में देख रही थी, किन्तु क्या चन्द्रिका को या तारों को?

तभी ग्यारह का घंटा बजा, मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठाकर अकस्मात् किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा। ग्यारह के पहले घंटे की खडक़न के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगी, और घंटा-ध्वनि के कम्पन के साथ ही मूक हो जानेवाली आवाज में उसने कहा- ‘ग्यारह बज गये…’

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आकाशदीप | जयशंकर प्रसाद | हिन्दी कहानी https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%86%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b6%e0%a4%a6%e0%a5%80%e0%a4%aa-%e0%a4%9c%e0%a4%af%e0%a4%b6%e0%a4%82%e0%a4%95%e0%a4%b0-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%b9%e0%a4%bf/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%2586%25e0%25a4%2595%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25b6%25e0%25a4%25a6%25e0%25a5%2580%25e0%25a4%25aa-%25e0%25a4%259c%25e0%25a4%25af%25e0%25a4%25b6%25e0%25a4%2582%25e0%25a4%2595%25e0%25a4%25b0-%25e0%25a4%25aa%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25b0%25e0%25a4%25b8%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25a6-%25e0%25a4%25b9%25e0%25a4%25bf https://hindisahityasangam.com/%e0%a4%86%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b6%e0%a4%a6%e0%a5%80%e0%a4%aa-%e0%a4%9c%e0%a4%af%e0%a4%b6%e0%a4%82%e0%a4%95%e0%a4%b0-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%b9%e0%a4%bf/#respond Mon, 05 Jun 2023 18:42:40 +0000 https://hindisahityasangam.com/?p=679 आकाशदीप जयशंकर प्रसाद     1 “बंदी!” “क्या है? सोने दो।” “मुक्त होना चाहते हो?” “अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।” “फिर अवसर न मिलेगा।” “बड़ा शीत है, कहीं से एक कंबल डालकर कोई शीत से मुक्त करता।” “आँधी की संभावना है। यही अवसर है। आज मेरे बंधन शिथिल हैं।” “तो क्या तुम भी […]

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आकाशदीप
जयशंकर प्रसाद

 

 

1

“बंदी!”

“क्या है? सोने दो।”

“मुक्त होना चाहते हो?”

“अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।”

“फिर अवसर न मिलेगा।”

“बड़ा शीत है, कहीं से एक कंबल डालकर कोई शीत से मुक्त करता।”

“आँधी की संभावना है। यही अवसर है। आज मेरे बंधन शिथिल हैं।”

“तो क्या तुम भी बंदी हो?”

“हाँ, धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी हैं।”

“शस्त्र मिलेगा?”

“मिल जाएगा। पोत से संबद्ध रज्जु काट सकोगे?”

“हाँ।”

समुद्र में हिलोरें उठने लगीं। दोनों बंदी आपस में टकराने लगे। पहले बंदी ने अपने को स्वतंत्र कर लिया। दूसरे का बंधन खोलने का प्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एक-दूसरे को स्पर्श से पुलकित कर रहे थे। मुक्ति की आशा-स्नेह का असंभावित आलिंगन। दोनों ही अंधकार में मुक्त हो गए। दूसरे बंदी ने हर्षातिरेक से उसको गले से लगा लिया। सहसा उस बंदी ने कहा- “यह क्या? तुम स्त्री हो?”

“क्या स्त्री होना कोई पाप है?” -अपने को अलग करते हुए स्त्री ने कहा।

“शस्त्र कहाँ है – तुम्हारा नाम?”

“चंपा।”

तारक-खचित नील अंबर और समुद्र के अवकाश में पवन ऊधम मचा रहा था। अंधकार से मिलकर पवन दुष्ट हो रहा था। समुद्र में आंदोलन था। नौका लहरों में विकल थी। स्त्री सतर्कता से लुढक़ने लगी। एक मतवाले नाविक के शरीर से टकराती हुई सावधानी से उसका कृपाण निकालकर, फिर लुढक़ते हुए, बंदी के समीप पहुँच गई। सहसा पोत से पथ-प्रदर्शक ने चिल्लाकर कहा- “आँधी!”

आपत्ति-सूचक तूर्य बजने लगा। सब सावधान होने लगे। बंदी युवक उसी तरह पड़ा रहा। किसी ने रस्सी पकड़ी, कोई पाल खोल रहा था। पर युवक बंदी ढुलक कर उस रज्जु के पास पहुँचा, जो पोत से संलग्न थी। तारे ढँक गए। तरंगें उद्वेलित हुईं, समुद्र गरजने लगा। भीषण आँधी, पिशाचिनी के समान नाव को अपने हाथों में लेकर कंदुक-क्रीड़ा और अट्टहास करने लगी।

एक झटके के साथ ही नाव स्वतंत्र थी। उस संकट में भी दोनों बंदी खिलखिला कर हँस पड़े। आँधी के हाहाकार में उसे कोई न सुन सका।

2

अनंत जलनिधि में ऊषा का मधुर आलोक फूट उठा। सुनहली किरणों और लहरों की कोमल सृष्टि मुस्कराने लगी। सागर शांत था। नाविकों ने देखा, पोत का पता नहीं। बंदी मुक्त हैं।

नायक ने कहा- “बुधगुप्त! तुमको मुक्त किसने किया?”

कृपाण दिखाकर बुधगुप्त ने कहा- “इसने।”

नायक ने कहा- “तो तुम्हें फिर बंदी बनाऊँगा।”

“किसके लिए? पोताध्यक्ष मणिभद्र अतल जल में होगा-नायक! अब इस नौका का स्वामी मैं हूँ।”

“तुम? जलदस्यु बुधगुप्त? कदापि नहीं।” -चौंक कर नायक ने कहा और अपना कृपाण टटोलने लगा! चंपा ने इसके पहले उस पर अधिकार कर लिया था। वह क्रोध से उछल पड़ा।

“तो तुम द्वंद्व युद्ध के लिए प्रस्तुत हो जाओ; जो विजयी होगा, वह स्वामी होगा।” -इतना कहकर बुधगुप्त ने कृपाण देने का संकेत किया। चंपा ने कृपाण नायक के हाथ में दे दिया।

भीषण घात-प्रतिघात आरम्भ हुआ। दोनों कुशल, दोनों त्वरित गतिवाले थे। बड़ी निपुणता से बुधगुप्त ने अपना कृपाण दाँतों से पकड़कर अपने दोनों हाथ स्वतंत्र कर लिए। चंपा भय और विस्मय से देखने लगी। नाविक प्रसन्न हो गए। परन्तु बुधगुप्त ने लाघव से नायक का कृपाण वाला हाथ पकड़ लिया और विकट हुंकार से दूसरा हाथ कटि में डाल, उसे गिरा दिया। दूसरे ही क्षण प्रभात की किरणों में बुधगुप्त का विजयी कृपाण हाथों में चमक उठा। नायक की कातर आँखें प्राण-भिक्षा माँगने लगीं।

बुधगुप्त ने कहा- “बोलो, अब स्वीकार है कि नहीं?”

“मैं अनुचर हूँ, वरुणदेव की शपथ। मैं विश्वासघात नहीं करूँगा।” बुधगुप्त ने उसे छोड़ दिया।

चंपा ने युवक जलदस्यु के समीप आकर उसके क्षतों को अपनी स्निग्ध दृष्टि और कोमल करों से वेदना विहीन कर दिया। बुधगुप्त के सुगठित शरीर पर रक्त-बिन्दु विजय-तिलक कर रहे थे।

विश्राम लेकर बुधगुप्त ने पूछा “हम लोग कहाँ होंगे?”

“बालीद्वीप से बहुत दूर, सम्भवत: एक नवीन द्वीप के पास, जिसमें अभी हम लोगों का बहुत कम आना-जाना होता है। सिंहल के वणिकों का वहाँ प्राधान्य है।”

“कितने दिनों में हम लोग वहाँ पहुँचेंगे?”

“अनुकूल पवन मिलने पर दो दिन में। तब तक के लिए खाद्य का अभाव न होगा।”

सहसा नायक ने नाविकों को डाँड़ लगाने की आज्ञा दी, और स्वयं पतवार पकड़कर बैठ गया। बुधगुप्त के पूछने पर उसने कहा- “यहाँ एक जलमग्न शैलखण्ड है। सावधान न रहने से नाव टकराने का भय है।”

3

“तुम्हें इन लोगों ने बंदी क्यों बनाया?”

“वणिक मणिभद्र की पाप-वासना ने।”

“तुम्हारा घर कहाँ है?”

“जाह्नवी के तट पर। चंपा-नगरी की एक क्षत्रिय बालिका हूँ। पिता इसी मणिभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते थे। माता का देहावसान हो जाने पर मैं भी पिता के साथ नाव पर ही रहने लगी। आठ बरस से समुद्र ही मेरा घर है। तुम्हारे आक्रमण के समय मेरे पिता ने ही सात दस्युओं को मारकर जल-समाधि ली। एक मास हुआ, मैं इस नील नभ के नीचे, नील जलनिधि के ऊपर, एक भयानक अनंतता में निस्सहाय हूँ, अनाथ हूँ। मणिभद्र ने मुझसे एक दिन घृणित प्रस्ताव किया। मैंने उसे गालियाँ सुनाईं। उसी दिन से बंदी बना दी गई।” -चंपा रोष से जल रही थी।

“मैं भी ताम्रलिप्ति का एक क्षत्रिय हूँ, चंपा! परंतु दुर्भाग्य से जलदस्यु बन कर जीवन बिताता हूँ। अब तुम क्या करोगी?”

“मैं अपने अदृष्ट को अनिर्दिष्ट ही रहने दूँगी। वह जहाँ ले जाए।” -चंपा की आँखें निस्सीम प्रदेश में निरुद्देश्य थी। किसी आकांक्षा के लाल डोरे न थे। धवल अपांगों में बालकों के सदृश विश्वास था। हत्या-व्यवसायी दस्यु भी उसे देखकर काँप गया। उसके मन में एक सम्भ्रमपूर्ण श्रद्धा यौवन की पहली लहरों को जगाने लगी। समुद्र-वक्ष पर विलंबमयी राग-रञ्जित संध्या थिरकने लगी। चंपा के असंयत कुंतल उसकी पीठ पर बिखरे थे। दुर्दांत दस्यु ने देखा, अपनी महिमा में अलौकिक एक तरुण बालिका! वह विस्मय से अपने हृदय को टटोलने लगा। उसे एक नई वस्तु का पता चला। वह थी-कोमलता!

उसी समय नायक ने कहा- “हम लोग द्वीप के पास पहुँच गए।”

बेला से नाव टकराई। चंपा निर्भीकता से कूद पड़ी। माँझी भी उतरे। बुधगुप्त ने कहा- “जब इसका कोई नाम नहीं है, तो हम लोग इसे चंपा-द्वीप कहेंगे।”

चंपा हँस पड़ी।

4

पाँच बरस बाद-

शरद के धवल नक्षत्र नील गगन में झलमला रहे थे। चंद्र की उज्ज्वल विजय पर अंतरिक्ष में शरदलक्ष्मी ने आशीर्वाद के फूलों और खीलों को बिखेर दिया।

चंपा के एक उच्चसौध पर बैठी हुई तरुणी चंपा दीपक जला रही थी। बड़े यत्न से अभ्रक की मञ्जूषा में दीप धरकर उसने अपनी सुकुमार उँगलियों से डोरी खींची। वह दीपाधार ऊपर चढऩे लगा। भोली-भोली आँखें उसे ऊपर चढ़ते बड़े हर्ष से देख रही थीं। डोरी धीरे-धीरे खींची गई। चंपा की कामना थी कि उसका आकाश-दीप नक्षत्रों से हिलमिल जाए; किंतु वैसा होना असंभव था। उसने आशाभरी आँखें फिरा लीं।

सामने जल-राशि का रजत शृंगार था। वरुण बालिकाओं के लिए लहरों से हीरे और नीलम की क्रीड़ा शैल-मालायें बन रही थीं और वे मायाविनी छलनायें अपनी हँसी का कलनाद छोड़कर छिप जाती थीं। दूर-दूर से धीवरों का वंशी-झनकार उनके संगीत-सा मुखरित होता था। चंपा ने देखा कि तरल संकुल जल-राशि में उसके कण्डील का प्रतिबिम्ब अस्तव्यस्त था! वह अपनी पूर्णता के लिए सैकड़ों चक्कर काटता था। वह अनमनी होकर उठ खड़ी हुई। किसी को पास न देखकर पुकारा- “जया!”

एक श्यामा युवती सामने आकर खड़ी हुई। वह जंगली थी। नील नभोमण्डल-से मुख में शुद्ध नक्षत्रों की पंक्ति के समान उसके दाँत हँसते ही रहते। वह चंपा को रानी कहती; बुधगुप्त की आज्ञा थी।

“महानाविक कब तक आवेंगे, बाहर पूछो तो।” चंपा ने कहा। जया चली गई।

दूरागत पवन चंपा के अञ्चल में विश्राम लेना चाहता था। उसके हृदय में गुदगुदी हो रही थी। आज न जाने क्यों वह बेसुध थी। वह दीर्घकाल दृढ़ पुरुष ने उसकी पीठ पर हाथ रख चमत्कृत कर दिया। उसने फिरकर कहा-“बुधगुप्त!”

“बावली हो क्या? यहाँ बैठी हुई अभी तक दीप जला रही हो, तुम्हें यह काम करना है?”

“क्षीरनिधिशायी अनन्त की प्रसन्नता के लिए क्या दासियों से आकाश-दीप जलवाऊँ?”

“हँसी आती है। तुम किसको दीप जलाकर पथ दिखलाना चाहती हो? उसको, जिसको तुमने भगवान् मान लिया है?”

“हाँ, वह भी कभी भटकते हैं, भूलते हैं, नहीं तो, बुधगुप्त को इतना ऐश्वर्य क्यों देते?”

“तो बुरा क्या हुआ, इस द्वीप की अधीश्वरी चंपारानी!”

“मुझे इस बंदीगृह से मुक्त करो। अब तो बाली, जावा और सुमात्रा का वाणिज्य केवल तुम्हारे ही अधिकार में है महानाविक! परन्तु मुझे उन दिनों की स्मृति सुहावनी लगती है, जब तुम्हारे पास एक ही नाव थी और चंपा के उपकूल में पण्य लाद कर हम लोग सुखी जीवन बिताते थे-इस जल में अगणित बार हम लोगों की तरी आलोकमय प्रभात में तारिकाओं की मधुर ज्योति में-थिरकती थी। बुधगुप्त! उस विजन अनन्त में जब माँझी सो जाते थे, दीपक बुझ जाते थे, हम-तुम परिश्रम से थककर पालों में शरीर लपेटकर एक-दूसरे का मुँह क्यों देखते थे? वह नक्षत्रों की मधुर छाया…..”

“तो चंपा! अब उससे भी अच्छे ढंग से हम लोग विचर सकते हैं। तुम मेरी प्राणदात्री हो, मेरी सर्वस्व हो।”

“नहीं-नहीं, तुमने दस्युवृत्ति छोड़ दी परन्तु हृदय वैसा ही अकरुण, सतृष्ण और ज्वलनशील है। तुम भगवान के नाम पर हँसी उड़ाते हो। मेरे आकाश-दीप पर व्यंग कर रहे हो। नाविक! उस प्रचण्ड आँधी में प्रकाश की एक-एक किरण के लिए हम लोग कितने व्याकुल थे। मुझे स्मरण है, जब मैं छोटी थी, मेरे पिता नौकरी पर समुद्र में जाते थे-मेरी माता, मिट्टी का दीपक बाँस की पिटारी में भागीरथी के तट पर बाँस के साथ ऊँचे टाँग देती थी। उस समय वह प्रार्थना करती-‘भगवान! मेरे पथ-भ्रष्ट नाविक को अन्धकार में ठीक पथ पर ले चलना।’ और जब मेरे पिता बरसों पर लौटते तो कहते-‘साध्वी! तेरी प्रार्थना से भगवान् ने संकटों में मेरी रक्षा की है।’ वह गद्गद हो जाती। मेरी माँ? आह नाविक! यह उसी की पुण्य-स्मृति है। मेरे पिता, वीर पिता की मृत्यु के निष्ठुर कारण, जलदस्यु! हट जाओ।”-सहसा चंपा का मुख क्रोध से भीषण होकर रंग बदलने लगा। महानाविक ने कभी यह रूप न देखा था। वह ठठाकर हँस पड़ा।

“यह क्या, चंपा? तुम अस्वस्थ हो जाओगी, सो रहो।”-कहता हुआ चला गया। चंपा मुठ्ठी बाँधे उन्मादिनी-सी घूमती रही।

5

निर्जन समुद्र के उपकूल में वेला से टकरा कर लहरें बिखर जाती थीं। पश्चिम का पथिक थक गया था। उसका मुख पीला पड़ गया। अपनी शान्त गम्भीर हलचल में जलनिधि विचार में निमग्न था। वह जैसे प्रकाश की उन्मलिन किरणों से विरक्त था।

चंपा और जया धीरे-धीरे उस तट पर आकर खड़ी हो गईं। तरंग से उठते हुए पवन ने उनके वसन को अस्त-व्यस्त कर दिया। जया के संकेत से एक छोटी-सी नौका आई। दोनों के उस पर बैठते ही नाविक उतर गया। जया नाव खेने लगी। चंपा मुग्ध-सी समुद्र के उदास वातावरण में अपने को मिश्रित कर देना चाहती थी।

“इतना जल! इतनी शीतलता! हृदय की प्यास न बुझी। पी सकूँगी? नहीं! तो जैसे वेला में चोट खाकर सिन्धु चिल्ला उठता है, उसी के समान रोदन करूँ? या जलते हुए स्वर्ण-गोलक सदृश अनन्त जल में डूब कर बुझ जाऊँ?”-चंपा के देखते-देखते पीड़ा और ज्वलन से आरक्त बिम्ब धीरे-धीरे सिन्धु में चौथाई-आधा, फिर सम्पूर्ण विलीन हो गया। एक दीर्घ निश्वास लेकर चंपा ने मुँह फेर लिया। देखा, तो महानाविक का बजरा उसके पास है। बुधगुप्त ने झुक कर हाथ बढ़ाया। चंपा उसके सहारे बजरे पर चढ़ गयी। दोनों पास-पास बैठ गए।

“इतनी छोटी नाव पर इधर घूमना ठीक नहीं। पास ही वह जलमग्न शैल खण्ड है। कहीं नाव टकरा जाती या ऊपर चढ़ जाती, चंपा तो?”

“अच्छा होता, बुधगुप्त! जल में बंदी होना कठोर प्राचीरों से तो अच्छा है।”

आह चंपा, तुम कितनी निर्दय हो! बुधगुप्त को आज्ञा देकर देखो तो, वह क्या नहीं कर सकता। जो तुम्हारे लिए नये द्वीप की सृष्टि कर सकता है, नई प्रजा खोज सकता है, नये राज्य बना सकता है, उसकी परीक्षा लेकर देखो तो…। कहो, चंपा! वह कृपाण से अपना हृदय-पिण्ड निकाल अपने हाथों अतल जल में विसर्जन कर दे।” -महानाविक-जिसके नाम से बाली, जावा और चंपा का आकाश गूँजता था, पवन थर्राता था-घुटनों के बल चंपा के सामने छलछलाई आँखों से बैठा था।

सामने शैलमाला की चोटी पर हरियाली में विस्तृत जल-देश में, नील पिंगल सन्ध्या, प्रकृति की सहृदय कल्पना, विश्राम की शीतल छाया, स्वप्नलोक का सृजन करने लगी। उस मोहिनी के रहस्यपूर्ण नीलजाल का कुहक स्फुट हो उठा। जैसे मदिरा से सारा अन्तरिक्ष सिक्त हो गया। सृष्टि नील कमलों में भर उठी। उस सौरभ से पागल चंपा ने बुधगुप्त के दोनों हाथ पकड़ लिए। वहाँ एक आलिंगन हुआ, जैसे क्षितिज में आकाश और सिन्धु का। किन्तु उस परिरम्भ में सहसा चैतन्य होकर चंपा ने अपनी कंचुकी से एक कृपाण निकाल लिया।

“बुधगुप्त! आज मैं अपने प्रतिशोध का कृपाण अतल जल में डुबा देती हूँ। हृदय ने छल किया, बार-बार धोखा दिया!”-चमककर वह कृपाण समुद्र का हृदय बेधता हुआ विलीन हो गया।

“तो आज से मैं विश्वास करूँ, क्षमा कर दिया गया?” -आश्चर्यचकित कंपित कण्ठ से महानाविक ने पूछा।

‘विश्वास? कदापि नहीं, बुधगुप्त ! जब मैं अपने हृदय पर विश्वास नहीं कर सकी, उसी ने धोखा दिया, तब मैं कैसे कहूँ? मैं तुम्हें घृणा करती हूँ, फिर भी तुम्हारे लिए मर सकती हूँ। अंधेर है जलदस्यु। तुम्हें प्यार करती हूँ।” चंपा रो पड़ी।

वह स्वप्नों की रंगीन सन्ध्या, तम से अपनी आँखें बन्द करने लगी थी। दीर्घ निश्वास लेकर महानाविक ने कहा- “इस जीवन की पुण्यतम घड़ी की स्मृति में एक प्रकाश-गृह बनाऊँगा, चंपा! चंपा यहीं उस पहाड़ी पर। सम्भव है कि मेरे जीवन की धुंधली सन्ध्या उससे आलोकपूर्ण हो जाए।”

6

चंपा के दूसरे भाग में एक मनोरम शैलमाला थी। वह बहुत दूर तक सिन्धु-जल में निमग्न थी। सागर का चञ्चल जल उस पर उछलता हुआ उसे छिपाए था। आज उसी शैलमाला पर चंपा के आदि-निवासियों का समारोह था। उन सबों ने चंपा को वनदेवी-सा सजाया था। ताम्रलिप्ति के बहुत से सैनिक नाविकों की श्रेणी में वन-कुसुम-विभूषिता चंपा शिविकारूढ़ होकर जा रही थी।

शैल के एक उँचे शिखर पर चंपा के नाविकों को सावधान करने के लिए सुदृढ़ दीप-स्तम्भ बनवाया गया था। आज उसी का महोत्सव है। बुधगुप्त स्तम्भ के द्वार पर खड़ा था। शिविका से सहायता देकर चंपा को उसने उतारा। दोनों ने भीतर पदार्पण किया था कि बाँसुरी और ढोल बजने लगे। पंक्तियों में कुसुम-भूषण से सजी वन-बालाएँ फूल उछालती हुई नाचने लगीं।

दीप-स्तम्भ की ऊपरी खिडक़ी से यह देखती हुई चंपा ने जया से पूछा-“यह क्या है जया? इतनी बालिकाएँ कहाँ से बटोर लाईं?”

“आज रानी का ब्याह है न?” -कह कर जया ने हँस दिया।

बुधगुप्त विस्तृत जलनिधि की ओर देख रहा था। उसे झकझोर कर चंपा ने पूछा- “क्या यह सच है?”

“यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो यह सच भी हो सकता है, चंपा! “कितने वर्षों से मैं ज्वालामुखी को अपनी छाती में दबाये हूँ।

“चुप रहो, महानाविक! क्या मुझे निस्सहाय और कंगाल जानकर तुमने आज सब प्रतिशोध लेना चाहा?”

“मैं तुम्हारे पिता का घातक नहीं हूँ, चंपा! वह एक दूसरे दस्यु के शस्त्र से मरे।”

“यदि मैं इसका विश्वास कर सकती। बुधगुप्त, वह दिन कितना सुंदर होता, वह क्षण कितना स्पृहणीय! आह! तुम इस निष्ठुरता में भी कितने महान होते।”

जया नीचे चली गई थी। स्तम्भ के संकीर्ण प्रकोष्ठ में बुधगुप्त और चंपा एकांत में एक दूसरे के सामने बैठे थे।

बुधगुप्त ने चंपा के पैर पकड़ लिए। उच्छ्वसित शब्दों में वह कहने लगा-चंपा, हम लोग जन्मभूमि-भारतवर्ष से कितनी दूर इन निरीह प्राणियों में इन्द्र और शची के समान पूजित हैं। पर न जाने कौन अभिशाप हम लोगों को अभी तक अलग किये है। स्मरण होता है वह दार्शनिकों का देश! वह महिमा की प्रतिमा! मुझे वह स्मृति नित्य आकर्षित करती है; परन्तु मैं क्यों नहीं जाता? जानती हो, इतना महत्त्व प्राप्त करने पर भी मैं कंगाल हूँ! मेरा पत्थर-सा हृदय एक दिन सहसा तुम्हारे स्पर्श से चन्द्रकान्तमणि की तरह द्रवित हुआ।

“चंपा! मैं ईश्वर को नहीं मानता, मैं पाप को नहीं मानता, मैं दया को नहीं समझ सकता, मैं उस लोक में विश्वास नहीं करता। पर मुझे अपने हृदय के एक दुर्बल अंश पर श्रद्धा हो चली है। तुम न जाने कैसे एक बहकी हुई तारिका के समान मेरे शून्य में उदित हो गई हो। आलोक की एक कोमल रेखा इस निविड़तम में मुस्कराने लगी। पशु-बल और धन के उपासक के मन में किसी शान्त और एकान्त कामना की हँसी खिलखिलाने लगी; पर मैं न हँस सका!

“चलोगी चंपा? पोतवाहिनी पर असंख्य धनराशि लाद कर राजरानी-सी जन्मभूमि के अंक में? आज हमारा परिणय हो, कल ही हम लोग भारत के लिए प्रस्थान करें। महानाविक बुधगुप्त की आज्ञा सिन्धु की लहरें मानती हैं। वे स्वयं उस पोत-पुञ्ज को दक्षिण पवन के समान भारत में पहुँचा देंगी। आह चंपा! चलो।”

चंपा ने उसके हाथ पकड़ लिए। किसी आकस्मिक झटके ने एक पलभर के लिऐ दोनों के अधरों को मिला दिया। सहसा चैतन्य होकर चंपा ने कहा- “बुधगुप्त! मेरे लिए सब भूमि मिट्टी है; सब जल तरल है; सब पवन शीतल है। कोई विशेष आकांक्षा हृदय में अग्नि के समान प्रज्वलित नहीं। सब मिलाकर मेरे लिए एक शून्य है। प्रिय नाविक! तुम स्वदेश लौट जाओ, विभवों का सुख भोगने के लिए, और मुझे, छोड़ दो इन निरीह भोले-भाले प्राणियों के दु:ख की सहानुभूति और सेवा के लिए।”

“तब मैं अवश्य चला जाऊँगा, चंपा! यहाँ रहकर मैं अपने हृदय पर अधिकार रख सकूँ -इसमें सन्देह है। आह! उन लहरों में मेरा विनाश हो जाय।” -महानाविक के उच्छ्वास में विकलता थी। फिर उसने पूछा- “तुम अकेली यहाँ क्या करोगी?”

“पहले विचार था कि कभी-कभी इस दीप-स्तम्भ पर से आलोक जला कर अपने पिता की समाधि का इस जल से अन्वेषण करूँगी। किन्तु देखती हूँ, मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाश-दीप।”

7

एक दिन स्वर्ण-रहस्य के प्रभात में चंपा ने अपने दीप-स्तम्भ पर से देखा- सामुद्रिक नावों की एक श्रेणी चंपा का उपकूल छोड़कर पश्चिम-उत्तर की ओर महा जल-व्याल के समान सन्तरण कर रही है। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।

यह कितनी ही शताब्दियों पहले की कथा है। चंपा आजीवन उस दीप-स्तम्भ में आलोक जलाती रही। किन्तु उसके बाद भी बहुत दिन, दीपनिवासी, उस माया-ममता और स्नेह-सेवा की देवी की समाधि-सदृश पूजा करते थे।

एक दिन काल के कठोर हाथों ने उसे भी अपनी चञ्चलता से गिरा दिया।

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